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धनपाल नामके चार विद्वान कवि
(ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
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जैन समाज में 'धनपाल' नामके कई विद्वान् हो गये हैं जिन्होंने विभिन्न समयों में अपनी रचनाओं द्वारा साहित्यसेवाका अच्छा कार्य किया है। उनमेंमें एक तो 'भविसयत्त का' (भविष्य कथा) नामक ग्रंथके कर्ता हैं. जो गायक are भरियन्टल सीरीज बड़ौदासे प्रकाशित हो चुका है। इस प्रन्थकी अन्तिम २२ वीं संधिके ६ वें कढवकवाल धत्ते में ग्रन्थकारने अपना कुछ परिचय दिया है, जिससे मालूम होता है कि यह कवि धर्कट नामके वैश्य वंशमें उत्पन्न हुए थे इनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था । इन्हें सरस्वतीका वर प्राप्त था और इन्होंने भी अन्य दिगम्बर प्रन्थकारोंके समान अपनी कथा के अवतारका सम्बन्ध विपुलाचल पर्वतवर भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर से श्रेणिककेतरसम्बन्धी प्रश्न के साथ किया है* । अपनी इस कृतिपरसे ये अच्छे प्रतिभाशाली कवि जान पड़ते हैं। साथ ही यह भी मालूम होता है कि वे दिगम्बर संप्रदाय के विद्वान् थे । क्योंकि ग्रन्थमें 'भंजि विजेया दियंवरि जाउ' ( संधि ५-२० ) जैसा वाक्य आया है, १६ वें स्वर्गके रूपमें अच्युत स्वर्गका नामोल्लेख है, और आचार्य कुंदकुंदकी मान्यतानुसार सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षायत | अंगीकार किया गया है। xत्ता - "घकड वणिवंसि माएसर हो समुब्भविण । मिरि देवि सुरण विरइउ सरसद संभविण ॥" *"चितिय धणत्रालि रणवरेण सरसइ बहुलद्ध महावरेण । चिउन इपिरिट्टिउकुमाणु, जसु ममवसरणु जोयमाणु ॥
गणहरु गोयर, ति तइयहुं जं सेखियो सिद्ध । पुच्छंत पंचमित्राणु तहिं श्रायउ एउ कहाणिहाणु || - भविसयत्त कहा पत्र २, श्रामे प्रति + चउथउ पुरणु सल्लेहरा भावइ, सो परलोइ सुस्तणु पात्रइ । भविसयत्तका १७-१२
जुवइउ होति चयारि वियहो, म मोहंति मिलि वि कंदमहो ।
ग्रंथकी प्रस्तावमासे भी, प्रो० जेकोबीके निर्णयको स्वीकार तथा पुष्ट करते हुए उन्हें दिगम्बर लिखा है ।
दूसरे धनपाल श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुए हैं । इनके पिताका नाम सर्वदेव और पितामहका देवर्षि था । गोत्र काश्यप था । जातिले ब्राह्मण थे और पहले जैनधर्भसे द्वष रखते थे परन्तु अपने लघुभ्राता के उसमें दीक्षित होजाने पर खुद भी उसके अनुयायी बन गए थे । यह संस्कृत प्राकृत के अच्छे विद्वान् थे। इनकी कई कृतियां उपलब्ध हैं इन्होंने राजा भोजकी श्राज्ञासे तिलकमंजरी नामका एक गद्य काव्य लिखा था। उपलब्ध रचनाओं में तिलकमंजरी नामका संस्कृत काव्य अपनी खास विशेषता रखता है यदि उसे संस्कृति साहित्यकी अनुपम कृति कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। राजा मुंजने इन्हें 'सरस्वती' की उपाधि भी दी थी। ये विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के प्रतिभासम्पन्न विद्वान थे, इन्होंने 'पाइयलच्छी नाममाला' नामका ग्रंथ वि० सं० १२२६ में अपनी लघुभगिनी सुन्दरीके लिये बनाया था। इनकी और भी कृतियां उपलब्ध हैं. एक
माणुस देवितिरियगः संभम, चित्ति कट्ठि पादाणि सब्मिम । चद्दिमि नारिहुं मवय कायहिं,
कारियो मेहिं । पांच वि इंदियाई जो खंच, खलिय बंभयारि सो बुच्चइ ।
जो
पशु तासु अन्ड यालइ, सोनहिं संग न निहालह । नियदारहो संतोसि श्रच्छद्द,
नन्नरं विवि न नियच्छइ । भविसयत्तकहा १६-६ x विक्कमकालस्स गए उण सुत्तरे सहस्सम्मि (१०२६) मालवन रिदधाडीए लूडिए मन्नखेडम्मि || धान परिट्टिएण मगो ठिचाए श्रणवज्जे । . कज्जे विहिणीए सुंदरीनामधिजाए || पायल० ना०