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किरण ७८]
'धनपाल नामके चार विद्वान कवि
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दो कृतियां जैनसाहित्यसंशोधक नामके ऐतिहासिक पत्र में बहुत कुछ विकसित रूपको लिये हुए है। उसमें देशी प्रकाशित हुई हैं।
भाषाके शब्दोंकी बहुलता रष्टिगोचर होती है. जिससे यह तीसरे पनपान पणहिलपुरके वासी थे, इनकी जाति
स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रमकी १५ वीं शताब्दीमें हिन्दी पल्लीवाल थी, इनके पिता समस्त शाखोंके ज्ञाता विद्वान भाषा बहुत कुछ विकास पागई थी। रचना सरस और और कवि थे, उनका नाम प्रामन था, इन्होंने 'नेमिचरित' गंभीर है और वह पदमे में रूचिकर प्रतीत होती है। नामका महाकाव्य बनाया था। इनके चार पुत्र थे
ग्रंथमें प्रग्य बनवाने में प्रेरक साह चासाधरके वंशका अनंतपाल, धनपाल, रत्नपाल और गुणपाल । अनन्तपाल
अच्छा परिचय दिया गया है। ग्रंथके प्रादिमें कविने अपना ने पट्टीगणितकी रचना की थी और धनपालने प्रज्ञ
भी कुछ परिचय देनेकी कृपा की है जो इस प्रकार है:होने पर भी अपने पिताकी प्रधान्त शिक्षा प्रभावसे 'तिलकमंजरीसार' नामका अन्य सं० १२६१ में कार्तिक
गुजरात देशके मध्य में 'पाहणपुर' नामका एक शुभता अष्टमी गुरुवार के दिन लिखकर समाप्त किया था ।
विशाल नगर था, वहां राजा पीसलदेव राज्य करते थे. जो धनपाल नामके इन तीन विद्वानोंके सिवाय महाल में पृथ्वीके मंटन और सकल उपमाछापे यक्त थे। आमेरके 'भ.महेन्द्रकीर्ति भयडार' को देखते हुए एक चौथे में निर्दोष पुरबाड वंशमें जिसमें अगणित पूर्वपुरुषतोच
लोप है 'भोवई' नामके एक राजश्रेष्टि थे जो जिनभक्त और भ्रश भाषाके 'बाहुबलिचरित' नामक ग्रन्थकी रचना की। दयागुणसे युक्त थे । यह कवि धनगलके पितामह थे। इस ग्रंथकी पत्र संख्या २७० है और उसमें भगवान श्रादिनाथ इनके पुत्र सुहडप्रभ श्रेष्टि थे जो धनपाल के पिता ये कवि के सुपुत्र भरतचक्रवर्तीय लघुभ्राता बाहबलीस्वामी जीवन- मनपालकी माताका माम सुहहा देवी था । इनके दो पत्र का चित्रण किया गया। ग्रन्थ अठारह संधियों में समाप्त और भी थे, जिनका नाम संतोष और हरराज था। इन चरित हया है। और उससे यह सहज हीमालूम होता है कि के गुरुगणि प्रभाचन्द्र थे जो अपने बहुतसे शियोंके साथ कविने यथाशक्ति चरित्रको सरस बनामेका भरसक प्रयत्न जैनतीर्थों की वंदना तथा देशाटन करते हुए उसी पाहणार किया है। ग्रंथकी भाषा पुष्पदन्तादि महाकवियोंकी भाषा में पाए थे। धनपाल ने इन्हें देखकर प्रणाम किया मनिने जैसी दसह मालम नहीं होती किन्तु वह हिन्दी भाषा देखकर उसे प्राशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रपादसे विच. * अणहिल्लपुरख्यात: पल्लीगलकुलोद्भवः ।
क्षण होगे। मस्तकपर हाथ रखकर कहा कि मैं तुम्हें मंत्र
देता हूँ. तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो। जयत्यशेषशास्त्रज्ञः श्रीमान् सुकविरामनः ॥ १ ॥
प्राचायके वचन सुनकर धनपालका मन मानंदित हुभा सुश्लिष्टशब्दसन्दर्भमद्भुतार्थ रसोर्मिमत् । येन श्रीनेमिचरितं महाकाव्यं विनिर्ममे ॥ २ ॥ * गुजरदेस मज्झि पवणु, वसई विउलु पल्हणपुर पट्टणु। चत्वारः सूनवस्तस्य ज्येष्ठस्तेषु विशेषवित् ।
वीसल एउराउ पय पालउ, कुवलय मडणु सयलु बमालउ। अनन्तपालश्चके साष्टा गणितपाटिकाम् ॥ ३ ॥ तहि पुग्वाहवंस जायामल, अगणिय पुन्यपुरिम णिम्मलकुल धनपालस्ततो नव्यकाव्यशिक्षापरायणः ।
पुण हुउ रायसेष्टि जिणभत्तउ भोवह णामें दयगुणजुत्तउ । रत्नपालस्फुरत्पज्ञो गुगापालश्च विश्रुत: ॥४॥ सुहडपउ तहोणंदणु जायउ गुरुसजणहिहं भुणिविक्खायउ धनगलोऽल्पज्ञश्चापि पितुरश्रान्तशिक्षया ।
बाहुबलिचरित पत्र २ सारं तिलकमंजर्याः कथायाः किञ्चिद प्रयत् । xगुज्जरपुरवाढवंसनिलउ सिरि सुइडसेष्टि गुणगणणिलउ । इन्दु-दर्शन-सूर्याति वासरे मासि कार्तिक ।
तहो मणहर छायागेहणिय सुहडाएवी णामें भणिय । शुक्नाटम्यां गुरावेषः कथासार:समापितः ॥ ६ ॥ तहो उपरि जाउ बहु विणयजुरोधणवालु वि सुउणामेण हो इनके विशेष परिचयके लिये देखो, 'जैनसाहित्य और तहो विरिण तणुभव षिउलगुण संतोसु तय हरिराउ पण॥ इतिहास' पृ० ४७०।
बाहुबलिचरित अंत्यप्रशस्ति