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किरण ६-१०]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
प्रतिदिन अवश्य किया करूँगा--चाहे वह कितने ही थोडे में कोई खास सुझाव देना इष्ट हो तो उसे अवश्य ही देने परिमाणमें क्यों न हो। और इस प्रतिज्ञाके अनुसार उसी की कृपा करें। उनकी इस पाके लिये मैं अवश्य उनका दिन (ता. २६ नवम्बर सन् १९५१ शनिवारको) इस पामारी हूँगा। धर्मशास्त्रका नये सिरेसे अनुवाद प्रारभ भी कर दिया, जो
मूलका मंगलाचरण सामान्यतः १५ मई सन् १६४२ को पूरा हो गया। इसके
नमः श्री-वर्द्धमानाय निर्धत-लिलात्मने । बाद स्वयम्भूरतोत्रके अनुवादको लिया गया और वह भी साऽलोकानां त्रिलोकानां द्विद्या दणायते ॥शा कोई छह महीने में पूरा होगया । इस तरह प्रतिज्ञाबद्ध हो जिन्होंने आत्मासं पापमलको निर्मूल किया हैकर मैं एक बर्षमें दो ग्रन्थोंके अनुवादको प्रस्तुत करनेमे राग द्वेष काम-क्रोधादिवकार-मूलक मोहनीयादि घातिया समर्थ हो सका । साथ ही समन्तभद्र-भारतीके सभी कर्मकलङ्कको अपने प्रात्मासे पूर्णतः दूर करके उसे स्वभाव ग्रन्थोंका एक पूरा शब्दकोष भी तरयार करा लिया गया, मे स्थिर किया है और इससे) जिनकी विद्या-केवलजिससे अनुवाद कार्यमे बढी मदद मिली। इसके पश्चात ज्ञानज्योति–अलोक-सहित तीनों लोकों के लिये दर्पण 'युक्त्यनुशासन'के अनुवादको भी हाथमें लिया गया था की तरह श्राचरण करती है- उन्हें अपने में स्पष्टरूपसे
और 'देवागम' के अनुवादको हाथ में लेनेका विचार था. प्रतिबिम्बित करती है। अर्थात जिनके केवलज्ञानमें प्रलोकक्योंकि मैं चाहता था कि इन सब अनुवादोंके साथ, जिनमें महित तीनों लोकोंके सभी पदार्थ साक्षातरूपसं प्रतिभासित 'स्तुतिविद्या' का अनुवाद माहित्याचार्य पं. पन्नालालली होते हैं और अपने इस प्रतिभास-द्वारा ज्ञानस्वरूप प्राप्मामें (सागर) कृत अपने पास पहले से मौजूद है, समन्तभद्र- कोई विकार उत्पन्न नहीं करते-वह दर्पणकी तरह भारतीको शीघ्र ही प्रकाशित कर दिया जाय । चुनाचे निर्विकार बना रहता है-उन श्रीमान वर्तमानको'युक्त्यनुशासन' का एक तिहाईके करीब अनुवाद हो भी भारताविभूति (दिव्यवाणी) रूप श्रीसे सम्पमा भगवान् चुका था, परन्तु वह अनुवाद दि. जैन परिषद के कानपुर महावीरको-नमस्कार हो। अधिवेशनकी भेंट हो गया--वहीं वॉक्सके साथ चोरी व्याख्या- 'वईमान' यह इस युगके आईत-मत. चला गया ! इससे चित्तको बहुत आघात पहुंचा और प्रवर्तक अथवा जैन धर्मके अन्तिम तीर्थरका नाम है, जिन्हे प्रागेको अनुवादकी प्रवृत्ति ही रुक गई !"
वीर, महावीर तथा सन्मति भी कहते हैं। कहा जाता है कि हाल में पिछली एक घटनाके कारण मेरा ध्यान फिरसे आपके गर्भमे श्राते ही माता-पितादिके धन, धान्य, राज्य, भाष्यकी ओर गया और यह खयाल पैदा हश्रा कि बडे राष्ट्र, बल, कोष, कुटुम्ब तथा दूसरी अनेक प्रकारकी विभूति पैमानेपर नहीं तो छोटे पैमानेपर ही सही, जीवनके इस की अतीव वृद्धि हुई थी, जिससे 'वर्द्धमान' नाम रखनेका लक्ष्यको शीघ्र पूरा करना चाहिये--इसपे बहुतोंका हित पहले से ही संकल्प होगया था, और इसलिये इन्द्र-द्वारा होगा । तदनुसार कितने ही पद्योंके अनुवाद के साथ व्याख्याने दिये गये 'वीर' नामके साथ यह 'बर्द्धमान' नाम भी प्रापका लगा दियागया है और कितने ही पोंकी व्याख्या जो अभी १जयभिचणं एस दारा कुच्छिसि गम्भताए वक्ते लिखनेको बाकी है उसके जल्दी लिखे जाने का प्रयत्न जारी है। तापभिई च णं अम्हे दिग्रोणं वढामो सुवरणेणं धरणेणं
यहाँ मैं इस भाप्यकं वुछ अशीको, नमूने के तौर पर, धन्नेणं रज्जेणं ?ण बलेणं वाहणेणं कोसणं कुष्टागारेणं मूलके साथ अनेकान्त-पाठकोंके सामने रखता हूं. जिससे परेणं अन्तेउग्णं जणवएण जावसएणं बहामो विपुलधणउन्हें इसके स्वरूपादिका ठीक परिचय प्राप्त हो सके और कणग-रयण- मणि - मुत्तिय - संख-सिलप्पवाल - रत्तस्यणवे इसकी उपयोगिता तथा विशेषताका कुछ अनुभव कर माइएणं मंत-सारसावइज्जेणं पीइ-मकारेणं अईव अईय सके। साथ ही, अनुभवी विद्वानोंम्प मेरा यह नम्र निवेदन वढामी, तं जयाणं श्रम्हं एस दारए जाए भविस्सह तयाणं है कि वे त्रुटियोंसे मुझे सूचित करें और यदि अपने अनु- अम्हे एयस्स दारगस्स एयागुरूवं गुएणं गुणनिप्पणं नामभवके बलपर उन्हें अनुवाद तथा व्याख्याके स्वरूप-संबन्ध धिज्जं करिस्मामो-वद्धमाणु ति ॥१०॥" -ल्पसूत्र