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अनेकान्त
[वर्ष ७
अम्मनाम है। 'श्री' शब्द नामका अहम होकर साथमें तवार्थोंका कीर्तन (सम्यग्वर्णन) होनेसे उसे 'कीर्ति' नाम विशेषण, जो उनकी श्रीमत्ता अथवा श्रीविशिष्टताको भी दिया है और वर्द्धमानस्वामीको महती कीर्ति (युक्तिसूचित करता है। और इस लिये 'श्रीवर्द्धमानाय' पदका श.साविरोधिनी दिव्यवाणी) के द्वारा भूमण्डलपर वृद्धि विग्रहरूप अर्थ हुमा श्रीमते वर्द्धमानाय'-श्रीमान्(श्रीसम्पन्न) (व्यापकता) को प्राप्त हुया बतलाया है | जिस पाईन्स्यबर्द्धमानके लिये। स्वयं ग्रन्थकार महोदयने अपनी स्तुति- लक्ष्मीमे प्राप्तभगवान देव-मनुष्यादिकी महती समवसरण विद्या(जिनशतक)में भी इस पदको इसी प्रका मे विश्लेषित सभामें शोभाको प्राप्त होते हैं उसका यह दिव्यवाणी फरके रक्खा है, जैसा कि उसके निम्नवाक्यसे प्रक्ट है- प्रधान अङ्ग है, इसीके द्वारा शासनतर्थ अथवा प्रागमतीर्थ "श्रीमते वर्द्धमानाय नमो नमित-विद्विषे” ॥१०॥ का प्रर्वतन होता है और उसके प्रवर्तक शास्ता, तीर्थङ्कर
इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार महोदयको 'बर्द्धमान' नाम तथा प्रारमेशी कहलाते हैं। शेष दो प्रमुख अङ्ग निर्दोषता ही अभीष्ट है-'श्रीवर्द्धमान' नहीं। ग्रन्थकारसे पूर्ववर्ती और सर्वज्ञता हैं, जिन्हें उक्त मङ्गल-पद्यमें 'निर्धतकलिप्राचार्य श्रीकुन्दकुन्दने भी अपने प्रवचनसारकी आदिमें लात्मन' धादि पदोंके द्वारा व्यक्त किया गया है। और पणमामि बढ़माणं' वाक्यके द्वारा 'वर्द्धमान' नामकी इससे भी यह और स्पष्ट होजाता है कि प्राप्तके प्रमुख तीन मृचना की है। अत: 'श्री' पद यहाँ विशेषण ही है। विशेषयों में से अवशिष्ट विशेषण तीर्थप्रवर्तिनी दिब्यवाणी
'श्री' शब्द लचमी, धनादि सम्पत्ति, विभूति, वाग्देवी. ही यहां 'श्री' शब्दके द्वारा परिगृहीत है और उस श्रीसे सरस्ववाणी-भारती२, शोभा, प्रभा, उच्चस्थिति, महानता, बर्द्धमानस्वामीको सम्पन्न बतलाया है। इस तरह प्राप्तके दिव्यशक्ति, गुणोत्कर्ष और आदर-सत्कारादि अनेक अर्थोंमें उत्सन्नदोष, पर्वज्ञ और प्रागमेशी ये तीन विशेषण जो प्रयुक्त होता है और जिस विशेषण के साथ जुडता हे उसकी भागे इसी ग्रन्थ कारिका) मे बताये गये हैं और स्थितिके अनरूप इसके अर्थ में अन्तर, तर-तमता, न्यूना- जिनके बिना प्राप्तता होती ही नहीं: ऐपा निर्देश किया है, धिकता अथवा विशेषता रहती है। यहां जिन प्राप्त उन सभीके उल्लेखको लिये हुए यहां प्राप्तभगवान भगवान वईमानके लिये यह पद विशेषणरूपमें प्रयुक्त वर्द्धमानका स्मरण किया गया है। युक्त्यनुशासनकी प्रथम हा है उनकी उम भारती-विभूति अथवा वचनश्रीका कारिकामे भी. वीर वर्द्धमानको अपनी स्तुतिका दिषय द्योतन करता है जो युक्ति शास्त्राविरोधिनी दिव्यवाणीके बनाते हुए, स्वामी समन्तभद्रने इन्हीं तीन विशेषणोंका रूपमें अवस्थित होती है और जिसे स्वयं स्वामी समन्तभद्र प्रकारान्तरसे निर्देश किया है। वहाँ 'विशीण-दोषाशयने सर्वज्ञलचमीसे प्रदीप्त हुई समग्र शोभा-सम्पत्र 'सरस्वती' पाश-बन्धम' पदके द्वारा सि गुणका निर्देश किया है लिया है तथा जीवन्मुक्त (महन्त) अवस्थामें जिसकी उसके लिये यहां निधतलिलात्मने पदका प्रयोग प्रधानताका उल्लेख किया है। साथ ही, उसके द्वारा किया है. और यह पद-प्रयोग अपनी खास विशेषता रखता १ अलं तदिति तं भक्तथा विभूष्योद्यविभूषणः । है। इस धर्मशास्त्रमें सर्वत्र पापोंको दूर करनेका उपदेश है वीरः श्रीवर्द्धमानस्तेविल्याख्या-द्विनयं व्यधात् ॥२७६॥ और वह उपदेश उन वर्द्धमानस्वामीके उपदेशानुसार है
उत्तरपुराण, पवं ७४ जोतीर्थर हैं और जिनका धर्मशासन (तीथ) इस समय २ 'श्रीलक्ष्मी-भारती-शोभा-प्रभासु सरलद्रुमे ।
भी लोकमें वतमान है। और इस जिये धर्मशास्त्रकी प्रादि वेश-त्रिवर्ग-सम्पत्तौ शेषारकरणे मतौ ॥'
--विश्वलोचने. श्रीधरः
में जहां उनका स्मरण सार्थक तथा युक्तियुक्त हुआ है वहाँ 'श्रीलक्ष्य... ." मतौ गिरि । शोभा-त्रिवर्गसम्पत्योः ॥ ४काय
४कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वा वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् । --अभिधानसंग्रहे, हेमचन्द्रः ।
. निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण दोषाशय-पाशबन्धम् ।। ३ बभार पद्मा च सरस्वती च भवान्पुरस्तात्पतिमुक्तिलक्ष्म्याः ।
. -युक्त्यनुशासन १ सरस्वतीमेव समग्रशोभा सर्वशलक्ष्मी-ज्वलिता विमुक्तः ॥२७ ५श्राईन्त्यलक्ष्म्याः पुनरात्मतन्त्रो देवाऽसुरोदोरसभे राज ॥ -स्वयम्भूस्तोत्र
-स्त्रयम्भूस्तोत्र ७८