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किरण :-१०]
समीचीन धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
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उन्हें 'निधताललात्मा'-पारमासे पापमलको दूर करने नरक भी पा जाते हैं, तद्गत द्रव्यों-महित 'अधोलोक' वाला-प्रदर्शित करना और भी सार्थक तथा युक्तियुक्त कहलाता है । रत्नप्रभाभूमिसे ऊपर सुदर्शनमेर की चूलिका हुधा है और यह सब ग्रन्थकार महोदयकी कथनशैलीकी तकका सब क्षेत्र तद्गत द्रव्यों सहित 'मध्य जोक' कहा खूबी है-वे भागे-पीछेके सब सम्बन्धोंको ठीक ध्यानमें जाता है और उसमें सम्पूर्ण ज्योतिर्लोक तथा तिर्यक्लोक रखकर ही पद-विन्यास किया करते हैं।
अन्तिमवातवलय-पर्यन्त शामिल है। और सुदर्शनमेरुकी 'कलिल' शब्द कल्मष, पार और दुरित जैसे शक के चूलकासे ऊपर स्वर्गादिकका इधर-उधरके मब प्रदेशों साथ एकार्थता रखता है। इन शब्दोंको जिस अर्थ में स्वयं सहित जो मन्तिम वातवलय पर्यन्तका स्थान है वह तद्गत स्वामी समन्तभद्र ने अपने ग्रन्थों में प्रयुक्त किया है प्राय: उस दयों सहित अर्ध्वलोक' कहलाता है। लोकके इन तीन सभी अर्थ को लिये हुए यहां कलिल' शब्दका प्रयोग विभागोंकी जैनागममें 'त्रिलोक' संज्ञा है। इन तीनों लोकस है। उदाहरण के तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रके पार्श्वजिनस्तवनमें बाहरका जो क्षेत्र है और जिसमें सब ओर अनन्तमाकाशके 'विधूतकल्मषं' पदके द्वारा पार्श्वजिनेन्द्रको जिस प्रकार सिवाय दूसरा कोई भी द्रव्य नही है। उसे 'अलोक' कहते घातिकर्मकलङ्कमे-ज्ञानावरण, दर्शनावकण मोहनीय और है। लोक अलोकमें संपूर्ण ज्ञेय तत्वोंका ममावेश होतानस अन्तराम नामक चार घातियाकर्मोंसे-रहित सूचित किया उन्हीं में ज्ञेय-तस्वकी परिसमाप्ति की गई है। अर्थात् प्राम है उसी प्रकार यहां 'निधुतकलिलात्मन' पदके द्वारा में यह प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञेयतत्व लोक-अनक बर्द्धमान जिनेन्द्रको भी उसी घातिकर्मकलसे रहित व्यक्त है-लोक-लोकसे भिन्न अथवा बाहर दूसराकोई ज्ञेय' पदर्थ किया है। दोनों पद एक ही अर्थक वाचक हैं। है ही नहीं। साथ ही, ज्ञेय ज्ञानका विषय होने और ज्ञान
'लोक' उसे कहते हैं जो अनन्त श्राकाशके बहुमध्य- की सीमाके बाहर शेयका कोई अस्तित्व न बन सकनेसे यह भागमे स्थित और प्रान्त में तीन महायातवलयोंग वेष्टित भी प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है'। जीवादि षट् द्रव्योंका समूह है, अथवा जहां जीव-पुद्गलादि जब ज्ञेय लोक-प्रलोक-प्रमाण है तब ज्ञान भी लोकछह प्रकारके द्रव्य अवलोकन किये जायें देखे-पाए जायें- अलोक-प्रमाण ठहरा. और इसलिये ज्ञानको भी लोकवह सब 'लोक' है। उसके तीन विभाग हैं-ऊलोक, अलोककी तरह सर्वगत (व्यापक) होना चाहिये, जैसा कि मध्यलोक और अधोलोक । सुदर्शन-मेरुके मूलभागसे नीचे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारकी निम्न गाथासे का इधर-उधरका सब प्रदेश अर्थात् रत्नप्रभा भूमिसे लेकर प्रकट है:नीचेका अन्तिम वातवलय तकका सब भाग, जिसमें श्रादा णाणपमाणं गाणं ऐयप्पमारणमुहिडं । व्यन्तरो तथा भवनवासी देवोके प्रावास और सातों णेयं लोयाप्लोयं तम्हा गाणं तु सव्वगः ॥५-०३।। १श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-द्वारा प्रवचनमारकी श्रादिमे दिया हा इसमें यह भी बतलाया है कि 'मामा ज्ञानप्रमाण वर्द्धमानका 'धोदघाइकम्मम." विशेषण भी इसी श्राशय है'-ज्ञानसे बड़ा या छोटा प्रारमा नही होता। और यह का द्योतक है ।
ठीक ही है, क्योंकि ज्ञानस मारमाको बडा माननेपर प्रात्म। २जैन विज्ञान के अनुसार जीव, पद्गल, धर्म, अधर्म काल का वह बढ़ा हुआ अंश ज्ञानशुन्य जड ठहरेगा और तब यह
और अाकाश ये छह द्रव्य हैं। इनके अलावा दूसग कोई कहना नही बन सकेगा कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है अथवा द्रव्य नहीं है। दूसरे जिन द्रव्योकी लोकमे कल्पना की जाती ज्ञान प्रारमाका गुण है, जोकि गुणी (प्रारमा)में व्यापक है उन सबका समावेश इन्दीमे होजाता है। ये नित्य और (सर्वत्र स्थित) होना चाहिये। और ज्ञानमे प्रारमाको अवस्थित है-अपनी छहकी संख्याका कभी उल्लवन नही छोटा माननेपर प्रारमप्रदेशोसे बाहर स्थित ( बढ़ा हुश्रा) करते । इनमेसे पुद्गलको छोड़कर शेष सब द्रव्य अरूपी हैं। ज्ञान गुण गुणी(द्रव्य)के प्राश्रय-वना ठहरेगा और गुण
और इनकी चर्चा से प्राय: सभी जैन-सिद्धान्त-ग्रन्थ गुणी (द्रव्य) के आश्रय विना कहीं रहता नहीं, जैसा कि भरे पड़े हैं ।
'द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः' गुणके इस तस्वार्थसूत्र-वर्णित