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अनेकान्त
[वर्ष ७
जक्षणसे प्रकट है। अत: श्रामा जान ये बड़ा या छोटा न होकर होते हैं और इस दृष्टिसे उनका वह निर्मलज्ञान स्वात्मप्रदेशों ज्ञान प्रमाण है. इसमें प्रापत्ति के लिये जा भी स्थान नहीं। की अपेक्षा सर्वगत न होता हा भी सर्वगत कहलाता है
जय प्रारमा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेष प्रमाण होने और तदनुरूप वे केवजी भी स्वारमस्थित होते हुए सर्वगत से लोंकाऽलोक प्रमाणित तथा पर्वगव है तब पारमा भी कहे जाते हैं । इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है। सर्वगत हुधा। और इससे यह निष्कर्ष निकला कि प्रान्मा इस प्रकारका कथन विरोधालङ्कार का एक प्रकार है. जो अपने ज्ञानगुण पहित पर्वगत (पवव्यापक) होकर लोकाs. वास्तवमें विरोधको लिये हुए न होकर विरोध-सा जान लोकको जानता है, और इसलिये श्रीवर्द्धमानस्वामी लोकाs- पड़ता है और इसीसे 'विरोधाभाम' कहा जाता है । अतः जोकके ज्ञान होने पे 'मर्वज्ञ' हैं और वे सर्वगन होकर ही श्रीवर्द्धमान स्वामीके. प्रदेशापेक्षा सर्वव्यापक न होते हुए लोकानोकको जानते हैं। परन्तु प्रारमा मदा स्वारम प्रदेशों भी, म्वात्मस्थित होकर पर्वपदार्थोको जानने-प्रतिभासित में स्थित रहता है-समारावस्थामे प्रारमाका कोई प्रदेश करने में कोई बाधा नहीं पाती। मुलोत्तररूप प्रारमा देहसे बाहर नहीं जाता और मुक्ता- अब यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि दर्पण बस्थामे शरीरका सम्बन्ध सदाके लिये छूट जानेपर प्रात्मा तो वर्तमानमे अपने सन्मुख तथा कुछ तिर्यकस्थित पदार्थों प्रदेश प्राय: चरमदेहके प्राकारको लिये हुए लोकके अग्रभाग को ही प्रतिबिम्बित करता है-पीछेके अथवा अधिक में जाकर स्थित होते है, वहाँस फिर कोई भी प्रदेश किसी अगल बगल के पदार्थों को वः प्रतिविम्बत नहीं करतासमय स्वाप बाहर तिकलकर अन्य लदार्थोंमें नहीं और सन्मुखादिरूपसे स्थित पदार्थों में भी जो सूक्ष्म हैं, जाता । इसीसे ऐसे शुद्धामाओं अथवा मुक्तारमाओं को दरवर्ती हैं, किसी प्रकारके व्यवधान अथवा प्रावरणसे युक्त स्वामस्थित' कहा गया है और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्व है. अमर्तिक * भूतकाल में सम्मुख उपस्थित थे भविष्य व्यापक नहीं माना गया, परन्तु साथ ही सर्वगत' भी कहा कालम सन्मुख उपस्थित होंगे किन्तु वर्तमानमें मन्मुख उपस्थि गया है. जैमा कि 'स्थात्मस्थितः मवगतः समस्तव्यापार- नहीं हैं उनमें से किमीको भी वर्तमान समयमें प्रतिबिम्बित वेदी विनिवृत्त मंगः'' जैप वाक्याप प्रकट है । तब उनके नहीं करता है: जब ज्ञान दर्पणके समान है तब कवली इस पर्वगतत्वका क्या रहस्य है और उनका ज्ञान कैसे एक
अथवा भगवान महावीरके ज्ञानदर्पणमें अलोक-पहित तीनों जगतस्थित होकर मब जगतके पदार्थों को युगपत जानता लोकोंके सव पदार्थ युगपत कैम्प प्रतिभासित होसकते हैं ? है? यह एक मर्मकी बात है. जिम स्वामी समन्तभद्रने और यदि युगपत प्रतिभासित नहीं हो सकते तो
प्रदिशादायते' मे शब्दोंके द्वारा थोडेमें ही व्यक्त कर सर्वज्ञता कैसे बन सकती है? और कैसे 'सालोकानां दिया है। यहां ज्ञानको दपण बतलाकर अथवा दर्पणकी त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते' यह विशेषण श्री वर्द्धमान की उपमा देकर यह स्पष्ट किया गया है जिस प्रकार दर्पण
स्वामीके साथ संगत बैठ सकता है? मरने स्थानपे उठकर पदार्थों के पाप नही जाता, त उनमें
इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इमना ही बतलाना चाहता हूँ प्रविष्ट होता है और न पदार्थ ही अपने स्थानसे चलकर
कि उपमा और उदाहरण (दृष्टान्त) प्रायः एकदेश होने हैंहमारे पास आने तथा उसमें प्रविष्ट होते हैं, फिर भी सर्वदेश नहीं. और इसलिये सर्वापेक्षामे उनके साथ तुलना पदार्थ दर्पग में प्रतिविम्बित होकर प्रविष्टमे जान पड़ते हैं और न की जाती
नहीं की जा सकती । उनले किसी विषयको समझने में
। उनसे किसी विषय दर्पण भी उन पदार्थों को अपनेमे प्रतिबिम्बत करता हुआ सद्
मदद मिलती है, यही उनके प्रयोगका लक्ष्य होता है। गत तथा उन पदार्थों के प्राकाररूप परिणत मालूम होता है,
जैसे किसीके मुखको चन्द्रमाकी उपमा दी जाती है, तो
लेकिन और यह सब दर्पण तथा पदार्थोकी इच्छाके बिना ही वस्तु-स्व. उमका इतना ही अभिप्राय होता है कि वह अतीव गौरमावसे होता है। उसीप्रकार वस्तुस्वभावसे ही शुद्धारमा केवलीके वर्ण है-यह अभिप्राय नहीं होता कि उसका और चंद्रमा केवल-शा रूप दर्पणमें अलोकसहित सय पदार्थ प्रतिबिम्बित का वर्ण बिल्कुल एक है अथवा वह सर्वथा चन्द्र-धातुका , देखो, श्री धनंजयकृन विषापहार स्तोत्र ।
ही बना हुआ है और चन्द्रमाकी तरह गोलाकार भी है।