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किरण ७-८]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
इसी तरह दर्पण और ज्ञानके उपमान-उपमेय-भावको दर्पण तो उससे भी बढ़ा चढ़ा होता है, जिसमें पूर्व जन्म समझना चाहिये । यहां ज्ञान (उपमेय) को दर्पण (उपमान) अथवा जन्मोंकी सैंकड़ों वर्ष पूर्व और हजारों मील दूर तक की जो उपमा दी गई उसका लक्ष्य प्रायः इतना ही है कि की भूतकालीन घटनाएं साफ झलक पाती हैं। इसी तरह जिस प्रकार पदार्थ अपने अपने स्थानपर स्थित रहते हुए निमित्तादि श्रतज्ञान-द्वारा चन्द्र-सूर्य ग्रहणादि जैसी भविष्य भी निर्मल दर्पण मे ज्योंके त्यों झलकते और तद्गत मालूम की घटनाओं का भी सवा प्रतिभास हुमा करता है । अब होते हैं और अपने इस प्रतिबिम्बित होनेमें उनकी कोई लौकिक दर्पणों और स्मृति प्रादि क्षायोपश मक ज्ञानइच्छा नहीं होती और न दर्पण ही उन्हें अपने में प्रति- दर्पणोंका ऐसा हाल है तब केवलज्ञ न-जैसे अलौकिक बिम्बित करने-करानेकी कोई इच्छा रखता है--सब कुछ दपंणकी तो बात ही क्या है ? उस सर्वातिशायी ज्ञानदर्पण वस्तु स्वभावये होता है, उसी तरह निर्मल ज्ञानमे भो में प्रलोक-सहित तीनों लोकोंके वे सभी पदार्थ प्रतिभासित पदार्थ-ज्योंके त्यों प्रतिभासित होते तथा तद्गत मालूम होते है जो 'ज्ञेय' कहलाते हैं-चाहे वे वर्तमान हों या होते हैं और इस कार्यमें किसीकी भी कोई इच्छा चरितार्थ अवर्तमान । क्योंकि ज्ञेय वही कहलाता है जो ज्ञानका नही होती-वस्तुस्वभाव ही सर्वत्र अपना कार्य करता विषय होता है--ज्ञान जिस जानता है । ज्ञानमे लोकहुआ जान पड़ता है। सस अधिक उसका यह प्राशय अलोकके सभी ज्ञेय पदार्थों को जाननेकी शक्त है, वह तभी कदापि नहीं लिया जा सकता कि ज्ञान भी साधारण दर्पण तक उन्हें अपने पूर्णरूपमें नही जान पाता जब तक उसपर की तरह जड है, दर्पण-धातुका बना हुआ है, दर्पण के पड़े हुए श्रावरणादि प्रतिबन्ध सर्वथा दूर होकर वह शक्त समान एक पावं (Sd- ) ही उसका प्रकाशित है और पूर्णत: विकसित नहीं हो जाने। ज्ञान-शक्तिक पूर्णविकमित वह उस पार्श्वके सामने निगवरण प्रथषा व्यवधानाहित और चरितार्थ होने में बाधक कारण हैं ज्ञानावरण, दर्शनाअवस्थामें स्थित तात्कालिक मृतिक पदार्थको ही प्रतिबि. वरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्म । म्बित करता है । ऐसा श्राशय लेना उपमान-उपमेय-भाव इन चारों घातिया कर्मोकी सत्ता जब प्रारमामें नही रहती तथा वस्तुस्वभावको न समझने जैसा होगा।
तब इसमें उस अप्रतिहत शक्ति ज्ञान-ज्योतिका उदय इसके मिवाय, दर्पण भी तरह तरहके होते हैं । एक होता है जिसे लोक-अलोकके सभी ज्ञेय पदाथोंको अपना सर्वसाधारण दर्पण, जो शरीरके ऊपरी भागको ही प्रति- विषय करनेसे फिर कोई रोक नहीं सकता। बिम्बित करता है--चर्म-मांसके भीतर स्थित हाडों श्रादि जिस प्रकार यह नहीं हो सकता कि दाहक-स्वभाव को नहीं. परन्तु दूसरा ऐक्स-रेका दर्पण चर्म-मांसके व्यव- अग्नि मौजूद हो, दाह्य-इन्धन भी मौजूद हो, उमे बहन धानमें स्थित हाहो श्रादिको भी प्रतिविम्बित करता है। करने में अग्निके लिये कोई प्रकारका प्रतिबन्ध भी न हो और एक प्रकारका दर्पण समीप अधवा कुछ ही दूरके पदार्थों फिर भी वह अग्नि उस दाह्यकी दाहक न हो, उसी प्रकार को प्रतिविम्बित करता है, दूसरा दर्पण (रे.डयो श्रादि यह भी नहीं हो सकता कि उक्त अप्रतिहन-ज्ञानज्योतिका द्वारा) बहुत दूरके पदार्थों को भी अपने प्रतिविम्बित कर धारक कोई कंवलज्ञानी हो और वह किसी भी ज्ञेयके लेता है। और यह बात तो साधारण दर्पणों तथा फोटों विषयमें अज्ञानी रह सके। इसी श्राशयको श्रीविद्यानन्न दर्पणों में भी पाई जाती है कि वे बहुतसे पदार्थों को अपने में स्वामीने अपनी अष्टसहस्रीमे, जो कि समन्तभद्रकृत छाप्त. युगपत् प्रतिविम्बित करलेते हैं और उसमें कितने ही निकट मीमांसाकी टीका है, निम्न पुरातन वाक्यद्वारा व्यक्त किया हैतथा दूरवर्ती पदार्थों का पारस्पिरिक अन्तराल भी लुप्त-गुप्त ज्ञो मे ये कथमज्ञः स्यादति प्रतिबन्धने । सा हो जाता है, जो विधिपूर्वक देखनेसे स्पष्ट जाना जाता दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यात्सति प्रतिबन्धन ।। है। इसके अलावा स्मृतिज्ञान-दर्पणमें हजारों मील दूरकी प्रतः श्रीवर्द्धमानस्वामीके ज्ञानदर्पणमें प्रलोक-सहित
और बीमियों वर्ष पहलेकी देखी हुई घटनाएँ तथा शक्लें तीनों लोकोंके प्रतिभासित होने में बाधाके लिये कोई स्थान (श्राकृतियाँ) साफ झलक पाती हैं। और जातिस्मरणका नहीं है, जब कि वे घातिकर्ममलको दूर करके नि