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किरण ६-१०]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
इसके बन्धनसे छुदानेवाजा है। और जो बन्धनसे छुडाने सांसारिक उत्तम सुखोंका प्राप्त होना उसका मानुषङ्गिक कक्ष वाला होता है वही दुखसे निकालकर सुख में धारण करता है- धर्म उसमे बाधक नहीं, और इस तरह प्रकारान्तरसे है; क्योंकि बन्धनमें-पराधीनतामें - सुख नहीं किन्तु धर्म संसारके उत्तम सुखोंका भी साधक है, जिन्हें प्रन्थमें दुःख ही दु.ख है। इसी विशेषणकी प्रतिष्ठापर तीसरा 'अभ्युदय' शब्दक द्वारा उल्लेखित किया गया है। इसीसे विशेषण चरितार्थ होता है, और इसी लिये वह कर्म- दूसरे प्राचार्योंने 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो' इत्यादि निवर्हण' विशेषणके अनन्तर रक्खा गया जान पड़ता है। वाक्योंके द्वारा धर्मका कीर्तन किया है। और स्वयं स्वामी
सुख जीवोंका सर्वोपरि ध्येय है और उसकी प्राप्ति समन्तभद्रने ग्रन्थ मन्तमें यह प्रतिपादन किया है कि जो अपने धर्मसे होती है। धर्म सुखका साधन (कारण) है और आत्माको इस (रत्नत्रय )धर्मरूप परिणत करता है उसे साधन कभी माय (कर्म) का विरोधी नहीं होता, इसलिये तीनों लोकोंमें 'सर्वार्थ सिद्धि' स्वयंवराकी तरह बरती है धर्मसे वास्तव में कभी दुखकी प्राप्ति नहीं होती, वह तो अर्थात उसके सब प्रयोजन अनायास सिद्ध होते हैं।' और सदा दःखोंप बहाने वाला ही है। इसी बातको लेकर इपलिये धर्म करनेमे सुख में बाधा पाती।'ऐया समझना श्रीगुणभद्राचार्यने, प्रात्मानुशासनमें, निम्न वाक्य द्वारा भूल ही होगा । सुखका आश्वासन देते हुए उन लोगों को धर्म में प्रेरित किया वास्तवमें उत्तमसुख जो परतन्त्रादिके अभावरूप शिवहै जो अपने सुख में बाधा पहुंचने के भयको लेकर धर्मम (निःश्रेयस)सुख है और जिम स्वयं स्वामी समन्तभदने विमुख बने रहते हैं
'शुद्धसुख२ बताया है उसे प्राप्त करना ही धर्मका मुख्य धर्मः सुग्वस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य । लक्ष्य है-इन्द्रियमुखों अथवा विषय भोगोंको प्राप्त करना तस्मात्सुम्बभङ्गभिया माभूर्धम्य विमुग्यस्त्वम ॥२० धर्मामाका ध्येय नहीं होता। इन्द्रियसुख बाधित, विषम,
धर्म करते हुए भी यदि कभी दुःख उपस्थित होता है पर श्रित, भंगुर, बन्धहेतु और दुःखमिश्रित प्रादि दोपोंसे सो उसका कारण पूर्वकृत कोई पापकर्मका उदय ही दूषित है। स्वयं स्वामीसमन्तभद्ने इसी अन्धमें 'कर्मसमझना चाहिये, न कि धर्म । 'धर्म शब्दका व्युत्पत्यर्थ परवशे' इत्यादि कारिका-द्वारा उसे 'कर्मपरतन्त्र, सान्त अथवा निरुत्यर्थ भी इसी बातको सूचित करता है और (भंगुर), दुःखोंमे अन्तरित-एकरसरूप न रहने वाला तथा उम अर्थको लेकर ही तीसरे विशेषणकी घटना (सृष्ट) की पापोंका बीज बतलाया है। और लिखा है कि धर्मात्मा गई है। उसमें सुग्वका 'उत्तम' विशेषण भी दिया गया है. (पम्यग्दृष्टि) ऐसे सुखकी प्राकांक्षा नहीं करता। और इस जिससे प्रकट है कि धर्मम उत्तम सुखकी-शिवसुम्बकी लिये जो लोग इन्द्रिय-विषयोंमे प्रामक्त हैं फंसे हुए हैंअथवा यो कहिये कि अबाधित सुखकी प्राप्ति तक होती अथवा सांसारिक सुख को ही सब कुछ पमझते हैं वे भ्रामग. है; तब साधारण सुख तो कोई चीज़ ही नहीं-वे नो धर्म चित्त हैं-उन्होंने वस्तुतः अपनेको मममा ही नहीं और सं सहजमें ही प्राप्त होजाते हैं। सांसारिक दुःखोंके छटनेसे न उन्हें निराकुलतामय मच्च्चे स्वाधीन सुखका कभी दर्शन अङ्ग है उतने अशम उसके कर्मबन्ध नही होता-कर्म- या आभास ही हुधा है। बन्धका कारण रागाश है, वह जितने अशी साथ होगा यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि उक्त उतने अंशोमे बन्ध बँधेगा।
१ देखो, निःश्रेयममभ्युदयं' तथा 'पूजार्थाजैश्चय:' नामकी येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । कारिकाएँ (१३०, १३५) येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥२१२॥ २ 'निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।' (१३१) येनाशेन ज्ञानं तेनाशेनाऽस्य बन्धन नास्ति । ३ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार(१-७६)मे, ऐसे इन्द्रियसुख । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ।।२१।। वस्तुतः दु:ख ही बतलाते हैं । यथा-- येनाशन चरित्रं तेनाशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । सपरं बाधासहियं विच्छिरणं बंध कारणं विसमं । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥२१४॥ जं इंदियेहि लद्धं तं सोक्सं दुक्खमेव तहा ।।