________________
१००
अनेकान्त
तीसरे विशेषण के संघटक व.क्य ('संसाग्दुरावतः सत्वान्
और धमका भी किसीके साथ कोई पक्षपात नहीं है-वह यो धरत्युत्तमे सुखे') में 'मत्वान पद सब प्रकारके विशे- प्रथकारके शब्दोंमें 'जीवमात्रका बन्धु है तथा स्वाश्रयमें षणोंसे रहित प्रयुक्त हुना है और इससे यह स्पष्ट है कि प्राप्त सभी जीवोंके प्रति समभावसे वर्तता है। इसी दृष्टिको धर्म किमी जाति या 'वर्ग-विशेषके जीवोंका ही द्वार नहीं लयमें रखते हुए ग्रन्थकार महोदयने स्वयं ही प्रन्थमें करता बल्कि ऊँचनीचादिका भेद न कर जो भी जीव--भले अगे यह प्रतिपादन किया है कि 'धर्मके प्रसादसे कुत्ता भी ही वह म्लेच्छ, चाण्डाल, पशु नारकी, देवादिक कोई भी ऊँचा उठकर (अगले जम्ममें ) देवता बन जाता है और क्यों न हो-उसको धारण करता है उसे ही वह दखसे ऊँचा उठा हुआ देवता भी पापको अपना कर धर्मभ्रष्ट हो निकाल कर सुख में स्थापित करता है और उस सुखकी जानेमे (जन्मान्तरमें) कुत्ता बन जाता है। साथ ही, यह मात्रा धारण किये हुए धर्मकी मात्रापर अवलम्बित रहमी भी बतलाया है कि धर्मसम्पन एक चाण्डालका पुत्र भी है-जो अपनी योग्यतानुम्पार जितनी मात्रा में धर्माचरण 'देव'--आराध्य है, और स्वभाव अपवित्र शरीर भी करेगा वह उतनी ही मात्रामें सुखी बनेगा। और इसलिये धर्म(रत्नत्रय)के सयोगसे पवित्र हो जाता है। अत: अपजो जितना ज्यादा दु:खित एवं पतित है उसे उतनी ही वित्र-शरीर एवं हीन जाति धर्मात्मा तिरस्कारका पात्र नही-- अधिक धर्मकी आवश्यकता है और वह उतना ही अधिक निजुगुप्सा अंगका धारकं धर्मात्मा ऐसे धर्मात्मासे घृणा न रख धर्मका शाश्रय लेकर उद्धार पानेका अधिकारी है। कर उसके गुणोंमें प्रीति रखता है और जो जाति आदि
वस्तुनः पतित' उसे कहते हैं जो स्वरूपमे च्युत है- किमी माके वशवा होकर ऐसा नहीं करता, प्रत्युत इसके स्वभावमें स्थिर न रहकर इधर उधर भटकता और विभाव ऐसे धर्मात्माका तिरस्कार करता है वह वस्तुतः प्रारमीय. परिणतिरूप परिणमता है- और इसलिये जो जितने धर्मका तिरस्कार करता है--फलतः श्रारमधर्मसे विमुख है। अंशों में स्वरूपमे च्युत है वह उतने अंशोंमें ही पतित है। क्योंकि धार्मिकके बिना धर्मका कही अवस्थ न नहीं और इस तरह सभी संसारी जीव' एक प्रकारसे पतितोंकी कोर्ट इमलिये धार्मिकका तिरस्कार ही धर्मका तिरस्कार है-- में स्थित और उसकी श्रेणियों में विभाजित हैं। धर्म जीवों जो धर्मका तिरस्कार करता है वह किसी तरह भी धर्मात्मा को उनके स्वरूपमें स्थिर करने वाला है, उनकी पतिता- नहीं कहा जा सकता। ये सब बात समन्तभद्र स्वामीकी वस्थाको मिटाता हुथा उन्हें ऊँचे उठाता है और इसलिये धर्म-मर्मज्ञताके साथ साथ उनकी धर्माधिकार-विषयक 'पतितोहाक' कहा जाता है । कूपमें पड़े हुए प्राणी जिम उदार भावनाओंकी द्योतक हैं और इन सबको दृष्टि-पथमें प्रकार रस्मेका सहारा पाकर ऊँचे उठ पाते और अपना रखकर ही 'मत्वान' पद सब प्रकारकं विशेषणोंसे रहित उद्धार कर लेते हैं उसी प्रकार ससारके दुःखोंमें डूबे हुए प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तु। पतितमे पतित जीव भी धर्मका प्राश्रय एव सहारा पाकर अब रही 'समीचीन' विशेषणकी बात। (क्रमश) ऊँचे उठ पाते हैं और दुःखोंमे छूट जाते हैं२ । स्वामी :
४ पापमरातिधर्मो बन्धुजीवस्य चेति निश्चिन्वन् । (१४८) समन्तभद्र तो अतिहीन' (नीचातिनीच) को भी इसी नो.
५ श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । में 'अतिगुरु' (अत्युच्च) तक होना बतलाते हैं। ऐसी स्थिति में स्वरूपसे ही सब जीवों का धर्मपर समान अधिकार है ६ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
- देवा देवं विदुर्भस्म-गूढागारान्तरौजसम् ।। (२८) १ जीवोके दो मूल भेद हैं-संमारी और मुक्त, जैसाकि 'ममारिणो
देवं श्राराध्य' इति प्रभाचन्द्र: टीकायाम् । मुक्ताश्च' इस तत्वार्थसूत्रसे प्रकट है। मुक्तजीव पूर्णत: स्व. रूपमे स्थित होनेके कारण पतितास्थासे प्रतीत होते हैं।
का ७ स्प्रभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय-पचित्रिते। २ "संमार एष कूपः सलिलानि विपत्ति जन्म-दःखानि निर्जुगुप्सा गुगण प्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ।। (१३)'
१६ धर्म एव रज्जुस्तस्मादुद्धरति निर्मग्नान ॥" (परातन) ८ स्मयेन योऽन्यानत्येनि धर्मस्थान् गर्विताशयः । ३ 'यो लोके त्वा नतः मोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुय॑तः ।"
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मों धार्मिकेविना ।। (२६) -जिनशतक ८२