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श्रोदादीजी-वियोग!
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जिन श्रीदादीजी श्रीमती रामीबाईजी धर्मपत्नी श्रीमान हृदय उदार और अतिथिसत्कार सराहनीय था; जो अपने ला. सुन्दरलालजी जैन रईस नानौताका सचित्र परिचय हितकी अपेक्षा दूसरोके और खासकर आश्रितजनोके हितकी अनेकान्त वर्ष ५ की मंयुक्त किरण ६-७ (जुलाई-अगस्त अधिक चिन्ता रखती थी; जिसका सारा जीवन बड़ा ही सन् १६४२) में मैने भनी रुमावस्थाके समय यह समझकर नम्र प्रेमपूर्ण तथा सेवापरायण रहा है जो गुएरीजनोंको देख दिया था कि कहीं बीमारीके चक्कर मे ऐसा न हो कि मुझे कर प्रफुल्लित हो उठती थी और विद्यासे बड़ा प्रेम रखती श्रापका परिचय लिखने और श्रापके प्रति अपनी कृतज्ञता थी; सत्कार्योमे जिसका सदा सहयोग रहा है, जो सदा बात व्यक्त करनेका अवसर ही न मिल सके, उन्दी पूज्य दादीजी का आज अनेकान्तके.ही कालमोमे मुझे वियोग लिखने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है, यह मेरे लिये नि: मन्देह बड़ा ही कष्टकर है ! परन्तु इतना सन्तोषका विषय है कि मैं दादी जीकी बामारीकी खबर पाकर देहलीसे नानौता पाठ दिन पहले उनकी सेवा में पहुंच गया था और मैंने अपनी शक्तिभर उनकी मेवा करनेमे कोई बात उठा नही रक्खी । मेरे पहुंचने के कुछ दिन पहलेसे दादीजी बोलती नही थी और न अॉखे ही खोलती थी, मेरे पानेका समाचार पाकर उन्होंने श्रोख जग खोली और पुकारने पर शक्तिको बटोरकर कुछ हँगूग भी दिया। अगले दिन (१ ली जूनको) तो उन्होने अच्छी तरह श्रॉग्वे खोल दी और वे बोलने भी लगी, इससे उनके रोगमुक्त होनेकी कुछ अाशा बँधी और साथ ही उनके उम श्रद्धा-वाक्यकी भी याद हो श्राई जिसे वे अक्सर कहा करती थी कि 'जब तुत श्राजाते हो हमारे रोग-मोग सब चले जाते हैं'-कई बार रोगामे मुक्तिके ऐसे प्रसंग उपस्थित भी हुए हैं जो उनकी श्रद्धाके कारण बने हैं, और इस लिये उन्हे उनके उक्त श्रद्धा-वाक्यकी याद दिलाते हुए कहा गया कि 'अब तुमको अपनी धारणानुसार जल्दी अच्छा होजाना चाहिये। कई दिन वे कुछ अच्छी रही भी, परन्तु । अन्नको श्रायुकर्मने माथ नहीं दिया और वे ता. ७ जून (ज्येष्टकृष्ण १२) गुरुवारको दिनके ११॥ बजेके करीब इस की सच्ची एवं धुनकी पकी थी, दूसरेके थोड़ेसे भी उपकारको नश्वर एवं जीर्ण देहका समाधि-पूर्वक त्याग करके स्वर्ग बहुत करके मानतीर्थ और हमेशा दूसरोंको नेक सलाह सिधार गई! और इस तरह जैनसमाजसे एक ऐसी धर्म- दिया करती थी!! परायण-वीरगना उठ गई जिसमें पुरुषों-जैसा पुरुषार्थ और जीवन के पिछले आठ दिनोंमे मैंने उनके पास रहकर, वीरों-जैसी हिम्मत तथा होमला था: जो कष्टोको बड़े धैर्यके उन्हें धर्मकी बातें सुना कर और उनसे कुछ प्रश्न करके साथ सहन करती हुई कर्तव्य-पालनमें निपुण थी; जिसका जो निकटसे उनकी स्थितिका अनुभव किया तो उससे
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