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अनेकान्त
[वर्ष ७
किस देशकी नगरी है यह प्रयत्न करनेपर भी अभी तक देवसेनकी अन्यकतृत्वरूपसे भी प्रसिद्धि है, किन्तु नाम-साम्य मालूम नहीं हो सका। बहुत संभव है कि उक्त नगरीका के कारण उनका समय निर्णय करने में इतिहासज्ञोंके लिये नामकरण 'मम्मल या मम्मट' राजाके द्वारा बसाये जानेके बड़ी ही कठिनाई उपस्थित हो जाती है । यहा ऐसे कुछ कारण हुश्रा हो, और वह नाम उस समय अत्यधिक देवसेन नामक विद्वानोंका परिचय एवं विचार उपस्थित प्रसिद्धि में आरहा हो, इसीसे ग्रन्थकारने उसका विशेष किया जाता हैउल्लेख करनेकी श्रावश्यकता न समझी हो।
(१) प्रथम देवसेन वह है जिनका उल्लेख श्रवणग्रन्थमें जिन विद्वानोंका नामोल्लेख किया गया है उन बेल्गोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर शक सं०६२२ वि० सं० सबमें समयकी दृष्टि से पुष्पदन्त ही बाद के विद्वान मालूम होते ७५७ में उत्कीर्ण शिलावाक्यमें पाया जाता है । यह है, क्योंकि उनका अस्तित्वकाल शक सं०८६४ वि० सं० महामुनि देवसेन व्रतपाल स्वर्गगामी हुए हैं। १०२६ तक तो निश्चित ही है। उसके बादका उनका कोई
(२) दूसरे देवसेन वह है जो धवला टीकाके कर्ता परिचय उपलब्ध नहीं होता । मालूम होता है प्रस्तुत देवसेन श्राचार्य वीरसेनके शिष्य थे और जिनका उल्लेख प्राचार्य पुष्पदन्तक महापुराणादि ग्रन्यास अवश्य पाराचत रह ह । जिनसेनने जयधवला टीकाकी प्रशस्तिके ४४ वे पद्यमें किया अत: देवसेनके समयकी पूर्वावधि पुष्पदन्त का उक्त हे च कि वीरसेनका समय निश्रित है अत: इन देवसेन समय या उससे कुछ बादका समय हो सकता है।
का समय भी वही होना चाहिये । इस ग्रन्थकी रचना राक्षस संवत्सरमें श्रावण शुक्ला
(३) तीसरे देवसेन वे हैं जिन्होंने धारानगरीमें रहते चतुर्दशी बुधवार के दिन पूर्ण हुई है। जैसा कि उस ग्रन्थ
हुए विक्रम संवत् ६६० में 'दर्शनसार' की रचना की है। के निम्न पद्यसे प्रकट हैरक्खससंवत्सरे बुइ दिवसए । सुक्कचउद्दिसि सावगामामए।
पिटर्सन साहबने इन्हें अपनी रिपोर्ट में रामसेनका शिष्य
लिखा है। चरिउ सुलोयणादि णिप्पण्णउ, सह-अत्य-वण्णण-संपुण्ण उ॥ साठ संवत्सरोंमेंसे राक्षस संवत्सर ४६ वा है। ज्योतिष
दर्शनसारमें ग्रन्थकर्ताने अपने गण-गच्छादिका कोई की गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर १०७५ A. D. उल्लेख नही किया है और न अपनी कोई गुरुपरम्परा ही दी (वि.सं. १९३२) २६ जुलाईको श्रावण शुक्ला चतुर्दशी है जिससे उनके जीवनादि सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला बुधवार के दिन पड़ता है । और दूसरा १३१५ A. D. जाता। किन्तु उनके दशनसारको देखते हुए यह निश्चय(वि० सं० १३७२) में १६ जुलाईको उक्त चतुर्दशी और पूर्वक कहा जा सकता है कि वे मूल-संघके विद्वान थे। बुधवारको पहता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का मूलसंधान्तर्गत काठासंघादिके नहीं; क्योंकि ग्रन्थकार उन्हें अन्तर है. शेष संवतों में श्रावण शक्ला चतुर्दशी बधवारका स्वयं जैनाभास लिख रहे हैं। दर्शनसारमें देवसेनने अपनी दिन नहीं पड़ता। अतः इनमेंसे यहा कौन सा संवत् उपयुक्त अन्य किसी रचनाका कोई उल्लेख नहीं किया है। फिर भी
कौनसा नही, और किस देवसेनके साथ प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता तत्त्वसार, आराधनासार, नयचक्र और श्रालापपद्धति ये देवसेनका सामंजस्स स्थापित हो सकता है, ये दोनों बातं चार ग्रन्थ भी इन्हींकी कृति मालूम होते है, अन्यभावही विचारार्थ प्रस्तुत है।
xदेखो, जनशिलालेख संग्रह पृ.१३॥ दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें 'देवसेन' नामके अनेक +देखो, जयधवला प्रशस्ति पद्य न. ४४ । विद्वानोंका उल्लेख मिलता है और उनमें किसी किसी = पिटसन सा ने देवसेनको रामसेनका शिष्य कैसे लिखा, * ज्योतिषकी गणनानुसार राक्षस संवत्सरका उक्त समय उसका क्या आधार है? यह कुछ समझमें नहीं आया । मित्रवर पं. नेमीचन्दजी न्याय-ज्योतिषशास्त्री, मैनेजर हो सकता है कि उन्हें कोई परम्परा ऐसी मिली हो जिसमें जैनसिद्धान्त भवन श्राराने निकाल कर भेजनेकी का देवसेनको रामसेनका शिष्य लिखा हो, यदि यह सत्य हो तो की है जिसके लिये मैं उनका प्राभारी हूँ।
भी दोनोकी एकता नहीं बनती।