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किरण ११-१२]
सुलोचना-चरिश और देवसेन
संग्रहादि नही, परन्तु पं. नाथूगमजी प्रेमी नयचक और जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओंमे प्रकट हैदेवसेनसूरि नामके अपने लेखमें नयचक्रादिके साथ श्रावाहिऊण देवे मुग्वइ-सिहि-कालणेरिए वरुणे । दर्शनसार और भावसंग्रहकी एक कर्तृकता ही प्रकट नहीं पवणे जखे सशूली सापय सवाहणे मसत्थे य ॥४३६|| करते किन्तु दर्शनसारके कर्ताको भी विमलमेन गणी या दाऊण पुजदब्वं बलि चरुवं तह य जगणभायं च । गणधरका शिष्य प्रकट करते हैं। प्रेमीजीकी इम एक कर्तृ- सम्वेसि मंतेदिय बीयावरणामजुत्तेहि ॥४॥ कताका आधार दर्शनमारकी कुछ गाथाश्रोका भावसंग्रहम ऊपर के इस कथनसे स्पष्ट है कि दर्शनसारके कर्ता पाया जाता है। परन्तु प्रेमीजीको उक्त कल्पना ठीक नहीं है। देवसेन विमलसेन गणीके शिष्य न होने और भावसंग्रहके दर्शनसारके कर्ता और भावसंग्रहके कर्ता देवमेन दोनों मूनसंघकी किमी एक शाखाका ग्रन्थ होने श्रादिके कारण अभिन्न व्यक्ति नही है, उनको भिन्नताके निम्न कारण है- उन दोनोका एकल नही दो मकता।
(१)दर्शनमारके कर्ता विमलसेन गणीके शिष्य नहीं हैं। इनके मित्राय जिन देवमेनका पन्थ प्रस्तुत 'सुलोचनाचरिउ' क्योकि ग्रंथमें अपने गुरुका ऐमा कोई उल्लेख नहीं किया है उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा देते हुए अानेको विमलसेन है। जबकि भावसंग्रहके कर्ता देवसेन अपनेको विमलसेन गणीका शिध्य सूचित किया है । अत: भावमंग्रा और गणीके शिष्य लिखते हैं।
सुलोचनाचरितके कर्ता देवमेन दोनों एक ही व्यक्ति जान (२) दर्शनसारकी कतिपय गाथाओंका भावसंग्रहमे पड़ते है । क्योकि दोनोक गुरु एक है। पाया जाना भी उसकी एक कतकताका आधार अथवा इनके सिवाय, एक चतुर्थ देवमेन वह है जिनका नियामक नही हो सकता क्योंकि बादका अन्धकार भी अपने उल्लेख मुभाषिनरल सन्दोह और धर्मपरीक्षादिके कर्ता प्रन्यमे उनका उपयोग कर सकता है उन्हें प्रथमे शामिल प्राचार्य अमितगतिने अपनी गुरुपरम्पराम किया और कर उसका अंग बना सकता है। और भी कितने ही उन्हें माथुर-मघा वीरमेनका शिष्य बतलाया है। ये अमितात ग्रंथकारांने अपनेसे पूर्ववर्ती विद्वानोके ग्रन्थोके वाक्यों आदि विक्रमको ११ वा मदीके विद्वान् है। को मूलरूपमे शामिल कर लिया है।
पंचम देवमेन वह हैं जिनका उल्लेग्न दुवकुण्डके
मं० ११४५ के शिलालेखमें पाया जाता है, जो लाइसंघको छोडकर अन्य काटासंघ और द्राविड संघादिको वागडमंघके उन्नत रोहणाद्रि थे, विशुद्ध रत्नत्रय धारक समय मिध्यात्वी या जैनाभास घोषित करता है । परन्तु
थे और समस्त श्राचार्य जिनकी श्राजाको नतमस्तक होकर भावसंग्रह केवल मूलमंघका प्रयनहीहै यह मलसंमान्त. हृदयम धारण करने थेxम मन्दिर-प्रशस्तिके लेखक गंत काष्ठासंघादिका मालूम होता है। साथ ही, उसमें त्रिव- विजयकातिम देवमन कमसे कम यदि ७५ वर्ष पहले ाचारके समान ही पाचमन, मकलीकरण, यज्ञोपवीत और मान लिये जाय
जोली मान लिये जायं तो इन देवमेनका ममय वि० सं० १०७० पंचामृत अभिषेकका विधान पाया जाता है. इतना ही नही होगा और यदि मौ वर्ष कम किए जायं नो १०४५ में किन्तु इन्द्र, अग्नि, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष और इन देवमेनका अस्तित्व मानना पड़ेगा। सोमादिको सशस्त्र तथा युवति, वाहन सहित श्राहानन छठ देवमेन वे हैं जिनका उल्लेग्व माथरसंघके करने, बलि चरु आदि पूज्य द्रव्य तथा यशके भागको भट्टारक गुगाकीर्तिके शिष्य यश:कालिन वि. स. १४६७ बीजाक्षर नामयुक्त मंत्रांसे देनेका विधान किया गया है, वे के अपने पाण्डवपुराणमें किया है। परन्तु यश-कीर्ति * सामसेन त्रिवर्णाचारमें भी दश दिक्पालोंका, आयुध, प्रासीद्विशुद्धतरबोधचरित्रहॉट-निःशेपमूरिनतमस्तकधारिताशः वाहन और युवति सहित पूजनेका विधान है-"ॐ श्रीलाटवागड़गणांनतरोहणादि-माणिक्यिभूतचरिती गुरुदेवसेनः इंद्राग्नियमनेऋत्यवरुणपवनकुवेरेशानधरणसोमाः सर्वेप्यायु
-दग्बो, दुवकुण्डका शिलालेख धवाइनयुवतिसहिता आयात प्रायात इदमय॑मित्यादि सिरि कटुमंघ माहुरहो गच्छ, पुस्वरगणि मु णिवई विलच्छि दिक्पालार्चनम् ।
-त्रिवर्णाचार पृ० १३६ संजायउ वीर जिणुक्कमेण, परिवाडिय जहवर णिश्यएण।