________________
१६४
अनेकान्त
[वर्ष
और कवि रबधूके अनुसार यह देवसेन माथुरमंघके विद्वान् थे, बाद विमलसेनका नाम रखना आपत्तिजनक होजाना है। जो संभवतः ग्वालियरकी गद्दीके पट्टपर प्राप्सीन हुए थे। परन्तु जहां तक मैं समझता हूँ प्रस्तुत विमलसेनके शिष्य किन्तु प्रशस्तिमे इन देवसेनके बाद विमलसेनका नाम ही देवसेन जान पढ़ते हैं। यदि मेरा यह विचार ठीक हो दिया हुआ है। यदि यह नाम समयक्रममे नही दिये गये तो 'भावसंग्रह' और 'सुलोचनाचरिउ' के कर्ता देवसेनको है तब तो कोई बात नहीं है । और यदि पाण्डवपुगण माथुरसंघका विद्वान् मानना होगा, और तब ६६. में रचे प्रशस्तिवाले नाम समयक्रमसे दिये गए हैं तब देवसेनके जाने वाले दर्शनमारके कर्ता देवसेनसे इनका कोई संबध सिरि देवसेणु तह विमलसेणु, तह धम्मसेणु पुणभावसेणु। नही बन सकेगा। और फिर इनका समय विक्रमकी १२ वी तहो पट्ट उवएगाउ सहसकित्ति, प्रणवग्य भमिय जासुकित्ति या तेरहवी शताब्दी मानना अनुचित नहीं होगा। तह विक्वायउ गुणाकत्तिणामु, तवतेएं जामु सरीरु ग्वामु । श्राशा हे विद्वान इसपर विचार करनेकी कृरा करेंगे। तहो णिय बंधउ जसकित्ति जाउ, श्रायग्यि पणासिय दोसु-गउ। वीरसेवामन्दिर, सरसावा
-देखो, पाण्डवपुगण देहलीप्रति। ता०५।८।४५
सम्पादकीय
१ अनेकान्तकी वर्ष समाप्ति
खरीदकर निर्दिष्ट (अधिकृत) मे अधिक कागज अपने इस किरण के साथ 'अनेकान्त' का ७वाँ वर्ष समाप्त पत्रमे इस्तेमाल नही कर सकता था। और निर्दिष्ट कागजके दोस। इस वर्ष में अनेकान्त ने अपने पाठकोंकी कितनी
स माजनिती समयपर मिलनेका सरकारकी ओरसे कोई प्रबन्ध नहीं था। सेवाकी, कितने महत्वके लेख प्रस्तुत किये, कितनी नई खोजे इसीसे दो दो महीनोकी किरणोका एक एक अंक निकालने के सामने रक्खी, क्या कुछ विचार-जागृति उत्पन्नकी और समाज लिये बाध्य होना पड़ा, और वह भी समयर कागज न के राग-द्वेषसे कितना अगल रहकर यह ठोस सेवा कार्य करता
मिलने तथा कागजके जैसे तैसे मिलनेपर प्रेसका उसे समय
पर छापकर न देने प्रादि कारणोंसे विलम्बके साथ* । इससे रहा, इन सब बातोंको बतलानेकी जरूरत नहीं पाठक उनमे भली प्रकार परिचित हैं। पर मैं इतना नरूर कहूँगा कि जितनी
पाठक एक तरफ लेखोंके कुछ टाटेमे रहे तो दूसरी तरफ उन्हे सेवाएँ की जानेको थीं और की जानी चाहिये थी वे इस
प्रीतक्षान्य कष्ट भी उठाना पड़ा, जिसका मुझे खेद है! वर्ष नहीं होसकी। उनमें सोंगरि मुख्य मेवा थी 'वीरशामनाङ्क,
प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाते उठाते कितने ही सजनोका तो नामक एक असाधारण विशेषाङ्कके निकालनेकी, जिसे
धैर्यका बोध दूद गया और उन्होंने यद्वा तदा शब्दोंमें सरकारके पेपरकंटोल पाईरोने अशक्य बना दिया, उसके
अव्यवस्थाकी भर्सेना तक कर डाली ! एक-दोने अपना विचारोंको बलात् दबाना पड़ा और पाठक दर्शनांके
चन्दा भी वापिस मांगा जो उन्हें भेज दिया गया, और लिये उत्कण्ठित ही हगये ! कही प्रस्तावितरूपमें यह
कुछ सज्जन ऐसे भी निकले जो प्रेम भरे शब्दोंमें इस विशेषाङ्क निकल जाता तो जैनसाहित्यमें एक बड़ी ही उपयोगी
प्रकारसे लिखते रहे-'अनेकान्त ही समाजमें एक ऐमा पत्र तथा अपूर्व चीजकी सृष्टि हो जाती। परन्तु कण्ट्रोल
है जिसे देखने और दिखलानेकी बराबर उत्कण्ठा बनी बार्डरका प्रहार हतने तक ही सीमित नहीं रहा, उसने
रहती है अतः कृपया इसे समयपर ही मेजा कीजिये। इसमें मासिक अंकों (किरणों) की कायाको भी अत्यंत क्षीण बना देशमे और भी कितने ही मासिक पत्र इसी चक्कर में पड़कर दिया । सरकारसे कागज न माँगनेपर भी, कोई चोर बाजारसे द्विमासिक त्रिमासिकके रूपमें नया विलम्बसे निकले हैं।