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किरण ११-१२]
सुलोचना-परित्र और देवसेन
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विवरणोह गिद्धावली णीयअंतो।
अरंभीय चित्ता सुउ हुलवत्ता । भड़ो को वि घाएण गिवटि सीसो,
णियं सोययंती इणं चित्तवंती, असि वा वरेई श्ररीसाण भीसो।
अहं पावयम्मा अलजा अधम्मा । भडो को वि रत्तापवाहे तरंतो,
मई कज एयं रणं अज जायं, फुरतप्पएणं तडि सिग्धपत्तो । भडो को वि मुक्का उहे बजइत्ता,
बहूणं णराणं विणासं करेणं, रहे दिएणयाउ विवरणोह णित्ता।
मह जीविएणं ण कज्ज अणेणं । भडो को वि इत्थी विसाणेहि भिएणो,
जयाहंसताउ ( श्रो) स-मेहेमराई, भडो को विकटोछिएणोणिसरणो।
सहे मंगवाई इमो सोमराई । पत्ता-तहि अवसरि णियसेण्णु पेच्छिवि सर-जजरियउ। घना--२ सयलवि संगामि. जीवियमाणकुमारहो ।
धाविउ भुयतोलंतु जर वकु मच्छर भरियउ॥६-१२ पेच्छमि होइ पविनि, तो सरीरमाहारहो ।
युद्ध के समय सुलोचनाने जो कुछ विचार किया उसे इन नमूने के तौरपर दिये हुए दो तीन कड़वकोपरसे ग्रंथकारने गूंथनेका प्रयत्न किया है। अर्थात् सुलोचनाको पाठक प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपात विषय और कविकी भावजिनमन्दिरमें बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महंतादिक भंगीका अदाजा लगाने में समर्थ हो सकेंगे। ग्रन्थका कथापत्र बल और तेज सम्पन्न पाँचसौ सैनिक वैरिपक्षने मारे भाग बड़ा ही रुचिकर है और उसे विविध छन्दोमें पढ़कर डाले हैं जो तेरी रक्षाके लिये नियुक्त किये गए थे । तब और भी श्रानन्द प्राता है। वह अपनी प्रात्मनिदा करती हुई विचार करती है कि यह कविवर देवसेनने इम ग्रन्थमे अपनी श्रोरसे कालिदास सग्राम मेरे कारण ही हुश्रा, जो बहुतसे सैनिकोका विनाशक हरिस, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चउमुम्ब, है। अत: मुझे ऐसे जीवनसे कोई प्रयोजन नहीं। यदि युद्ध स्वयंभू, पुष्पदन्त और भूपाल नामके कवियोका स्मरण मे मधेश्वर (जयकुमार) की जय हो और मैं उन्हें जीवित किया है । साथ ही, अन्यकी दशमी मधिके शुरूमें देखलूंगी, तभी शरीर के निमित्त श्राहार करूंगी। इससे स्पष्ट एक गाथामें यहाँ तक प्रकट किया है कि चतुर्मुख है कि उस समय सुलोचनाने अपने पतिकी जीवन-कामना और स्वयंभू प्रमुख कवियोंके द्वारा रक्षित और महाकवि के लिये श्राहारका भी लाग कर दिया था । इमसे उसके पुष्पदन्त द्वारा दुहित सरस्वतीरूपी गौके पयका देवसेनने पातिव्रत्य और पतिभक्ति का उच्चादर्श सामने श्राता है। पान किया जैसा कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट हैजैसा कि निम्न कडवकसे प्रकट है
च उमुह-सयंभु-पमुहेहि स्विय दुहिय पुफियंनेण। इमं जंपिऊणं पउत्तं जयेणं,
सुरसह मुरदीए पयं पीयं सिरि देवसेणेण ।। तुम एह कराणा मनोहारवण्णा ।
रचनाकाल सुरक्खेद पूणं पुरेणेह उणं,
कविवर देवसेनने 'सुलोचनाचरित' की रचना 'मम्मल' " तउ जोइ लक्खा अणेया श्रमखा।
राजाकी नगरी में निवास करते हुए की है । 'मम्मल पुरी' सुसत्था वरिएणा महं रक्वदिण्णा,
*जहि वमीयवाम सिरि हरिसहि, रहा चारुचिघा गया जो मयंधा ।
कालियाम जे पमुह कह सरसदि । महंताय पुत्ता बला-तेयजुत्ता,
वाण-मृ यूर-हलिय-गोविन्दति । सयापंचसखा हया वैरिपक्वा ।
च उमुह श्रवरु मयंभू कइंददि । पुरीए णिहायं वरं तुग गेहं,
पु'फयंत - पाल पहाण दि , फुरतीह गीलं मणीलं करालं ।
अवर हिमि बहु सत्य वियाणहि। पिया तत्थ रम्मोवरे चित्तकम्मे,
-सुलोयणाचरिउ, आदिभाग