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अनेकान्त
[वर्ष ७
भी सुनी जाती है, परन्तु दुर्भाग्यवश वह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध
ताण जाया मई पावसंसग्गिणी, है। इसी तरह अनेक महत्वपूर्ण मौलिक कृतिया श्राज एरिसो छंदश्रो बुच्चए सम्गिणी । हमारी श्राखोसे ओझल हो चुकी हैं-उनका कहीं पता भी स्वयंवर मंडपमें जब सुलोचना भरत चक्रवर्तीके पत्र नही चलता । श्राशा है विद्वानों और श्रीमानोका लक्ष्य अर्ककीर्ति जैसे राजकुमारोको छोड़कर जयकुमारके गलेमें पुरातन साहित्यके अन्वेषण एवं प्रसारकी ओर अग्रसर होगा। वरमाला डालती है, तब अर्ककीर्ति और अन्य दूसरे राज
पाठकोंकी जानकारीके लिये मैं ग्रन्थगत एक दो छन्दों कुमार, जो स्वयंवरकी नीतिसे असंतुष्ट थे, अपने अपमानका के उदाहरण भी प्रस्तुत कर देना चाहता हूँ जिससे पाटक बदला लेने के लिये जयकुमारके साथ युद्ध करने के लिये उनके स्वरूपका बोध करते हुए ग्रन्थकी रचना शैली और प्रस्तुत होगए, परन्तु उनमें कितने ही न्यायप्रिय राजाश्रोने उमके विषयसे भी परिचित हो सके । अत: सबसे प्रथम जयकुमारका भी साथ दिया। दोनों पोरकी सेनाएँ रणभूमि भगवान आदिनाथकी दीक्षाका प्ररूपक 'मगिणी छंद' नीचे में मुसज्जित होकर श्रागई और परस्पर युद्ध भी होने लगा। दिया जा रहा है, जिसमें भगवान श्रादिनाथकी दीक्षाका कविने उस समयके युद्धका जो चित्रण दिया है, उसे भी वर्णन करते हए उनके प्रेम अथवा भक्तिवश सायमें दीक्षित बतौर उदाहरणके नीचे दिया जाता है, जिससे यह सहज होनेवाले कच्छ महाकच्छादि चार हजार राजाओंका भी ही मालूम होजाता है कि प्राचीन काल में रणभूमिमें धार्मिक उल्लेग्व है, जो दुष्कर तपश्चर्यासे खेदखिन्न होकर पथभ्रष्ट मर्यादाका उल्लंघन नहीं किया जाता था। उम समय युद्धमे होगए थे-मुनिधम के विरुद्ध आचरण करने लगे थे :
धार्मिक मर्यादाका उल्लंघन करना बड़ा भारी पाप समझा “गामिणी सामिणी मेल्लिऊणं जिणो,
जाता था, इतना ही नहीं किन्तु अस्त्रविहीनोपर शत्रका मायरी माणिणी ग्वामिउणं जिणो।
प्रहार नही किया जाता था, प्रत्युत जो जिम शस्त्रका धारक थक्कु णिगंथुद्दो एवि जोईसरी, होता था उसपर उसी शस्त्रसे प्रहार करनेका उपक्रम किया मुक्कबाहो श्रवाहो हु तित्थंकरो ।
जाता था और जो भट रणभूभिसे भाग जाता था उम पीट सीस केसा असेसा विणिद्धाडिया, दिग्वाने वालेके विरुद्ध कभी शस्त्रसंचालन नही किया जाता णाई कम्मस्स मूला समुगडिया।
था परन्तु आज कल युद्धका कुछ रूप ही दूसरी तरहका हेमात्ते धरेऊण ते सक्किणा,
दृष्टिगोचर होरहा है। उसमें धार्मिकताकी तो गंध भी नही; घल्लिया खीरतोए समुद्देतिणा ।
किन्तु कुटनीतिका साम्राज्य ही यत्र तत्र दिखलाई दे रहा तं णिएऊण मारो मणा मकिउ,
है। अस्तु, उस युद्धका प्ररूपक एक कड़वक इस प्रकार हैलायणाहो फुडं अज दिवं किउ ।
भडो को वि खग्गेण खां खलंतो, सुक्कझाणासिणा णित्तुलं मारिही,
रणे सम्मुहे सम्मुहो श्राहणंतो । मज्झभजाण रंडत्तणं कारिही ।
भडो को वि वाणेण वाणो दलतो, भीमचित्तो अणंगो बुहाण पिया,
समुद्धाइ उदुद्धरो णं कयंतो ? मुक्कवासा अकेसा गरेसाथिया ।
भडो को वि कौतण कोतं सरंतो, होइ णिग्गंथरूवा सहस्सा चऊ ,
करे गाढचक्को अरी संपहुंतो । केत्तिर कालवि ते किलिहावऊ ।
भडो को वि खंडेहि खंडी कयंगो; कच्छयाई महाकच्छ भग्गा तवे,
लडर ण मुक्को सगा जो अहंगो। णाई गट्ठा अधीरा भडा श्राइवे ।
भडो को वि संगामभूमि घुलंतो, श्वेताम्बरीय विद्वान् उद्योतनसूरिने भी 'कुवलयमाला * यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कंटको वा निजमंडलस्य के ३६ वे पद्यमें, और महाकवि धवलने हरिवंशपुराणमें अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ।। महासेनकी सुलोचनाका उल्लेख किया है।
, --यशस्तिलक उ. पृ०६६