________________
सुलोचनाचरित्र और देवसेन (लेखक-पं० परमानन्द जैन, शास्त्री )
संस्कृत और प्राकृत की तरह अपभ्रंश भी साहित्यिक भाषा के कर्ता देवसेन है । जिन्होने मदविजयी होते हुए गुरुके रही है और जनसाधारण के व्यवहारमे इसका उपयोग भी उपदेशसे तपका निर्वाह किया था, जो धर्मके उपदेशक, होता रहा है । इसके साहित्यका समवलोकन करनेसे भली- संयमके परिपालक और भव्यजनरूपी कमलोंके अज्ञानान्धभॉति निश्चित हो जाता है कि यह भाषा बड़ी ही लोकप्रिय कार विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्र ही जिनका परिग्रह रही है । जैनियोंके चरित्रग्रन्थोंका अधिकतर निर्माण इसी था, कुशीलके विनाशक थे, धर्मकथाके द्वारा प्रभावना भाराम हुआ है। अब तक इस भाषाके जो ५०-६० ग्रन्थ करना उनका स्वभाव था, और वे उपशमके निलय, ग्नदेखनेको मिले हैं उनसे मैं इस निष्कर्षपर पहूँचा हूँ कि त्रयके धारक, सुजनो में सौम्य तथा जिनगुणोंमें अनुरक थे । यह भाषा अपने समय में बहुत ही उत्कर्षपर रही है। इसकी उक्त गुणोंसे विशिष्ट कविवरदेवसेनने मुलोचनाके जीवन कितनी ही रचनाएँ तो पढते समय इतनी प्रिय मालूम होती चरित्रको बड़े ही सुन्दर ढंगसे पद्धड़ी, चौपाई, सम्गिणी और हैं कि छोड़नेको जी नहीं चाहता। अस्तु ।
भुजंगप्रयात अादि विविध छन्दोमें रचा है। जिनसेनाचार्य अाज मैं पाठकोको अपभ्रंश भाषाके एक ऐसे ही चरित
तथा महाकवि पुष्पदन्त के आदिपुगणगत सुलोचनाच रत ग्रन्थका कुछ परिचय करानेका उपक्रम कर रहा हूँ जो
कसानो का भी अन्य में उपयोग किया गया है और इस तरह ग्रंथको प्रायः अब तक अनुपलब्ध था । इस ग्रंथका नाम 'सुलोयणा
खूब लोकोपयोगी बनानेकी और खास ध्यान रखा गया
र चरिउ' है। इसमे भगवान आदिनाथके सुपुत्र भरत चक्रवर्ती
मालूम होता है । मुलोचनाकाचरित्र स्वत: बड़ा ही उज्ज्वल (जिनके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष प्रख्यात हुश्रा
और प्रभावशाली रहा है, कविने उसे और भी सरस बनाने है) के प्रधान सेनापति जयकुमारकी धर्मपल्ली सुलोचनाका,
का प्रयत्न किया है। अन्यकी महत्ताका दूमग कारण यह जो उन्हें स्वयंबर द्वारा प्राप्त हुई थी और राजा अकंपनकी
भी है कि देवसेनकी यह प्राय: निजकी कृति नहीं है, किन्तु पुत्री थी, चरित्र दिया हुआ है।
श्राचार्य कुन्दकुन्दके एक गाथाबद्ध 'सुलोचनाचरित' का
पद्धडिया श्रादि छन्दोमें अनुवाद है, जैसा कि उसके छठे इस ग्रंथके कर्ता मुनि देवसेनगणी या गणधर है जो कडबकी निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:निवडिदेवके प्रशिष्य और विमलसेन गणधरके शिष्य थे।
जं गाहाबधे श्रासि उत्त, सिरिकुदकुंदगण्णिा गिरुत्त । विमलसेन पंचेन्द्रियोंके सुखरागके विनाशक, शीलगुणोंके ।
तं एत्यहि पद्धडियहि करेमि, परि किपि न गूद उ अत्यु देमि । धारक, गुणोंक रत्नाकर, उपशम, क्षमा और संयमरूपी जल ।
तेण वि कविणउ संसा लहंति, जे अत्युदेखि वसणादि विनि के सागर, मोहरूपी महामल तहके लिये उत्तम इस्ती और भव्यजनरूप कुमुदवनखंडाको विकसित करनेके लिये ...
इस उल्लेखपरसे कविकी जहाँ प्रामाणिकता दृष्टिगोचर चन्द्रमा थे। साथ ही महान तपस्वी थे, दर्शन-ज्ञान-चारि- हात
होती है वहा प्राचार्य कुन्दकुन्दके एक महत्वपूर्ण सुलोचना त्रादि पंचाचाररूप परिग्रह के धारक थे. मितिमा चरितका भी स्पष्ट पता चलता है जो श्राजतक अनुपलब्ध गुप्तियोसे समृद्ध थे, मुनिगणोंके द्वारा वंदित और लोकमें ।
है। श्रर तक सिर्फ महाकवि महासेनके सुलोचनाचरित्रका प्रसिद्ध थे। उन्होंने कामदेव के प्रसारको रोका था । दुर्धर हाउ
ही उल्लेख* उपलब्ध होता था और उसकी बड़ी प्रशंमा पंचमहावनोको धारण किया था। वे मलधारीदेवके नामसे *महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी । भी पुकारे जाते थे। इन्हीं विमलसेनके शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ कथा न वणिता केन वनितेव सुलोचना ॥३३|-हरिवं रापु०