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अनेकान्त
[वर्ष ७
और उसके द्वारा दर्शनके इस स्वरूपकथनमें एक प्रकारसे भक्तिको स्पष्टतया सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)का गुण लिखा भी भनियोगका समावेश किया गया है। प्रन्यमें सम्यग्दर्शनकी है, जैसा कि निम्नगाथासूत्रसे प्रकट है, जिसमें सवेग, निर्वेद, महिमाका वर्णन करते हुए जो निम्न वाक्य दिये हैं उनसे निन्दा, गर्दा, उपशभ, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा, ये भी भक्तियोगके इस समावेशका स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है- सम्यक्तके आठ गुण बतलाये हैं"अमराप्परसा परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे:३७ संवेओ णिवेओ णिंदण गहा य उक्समो भत्ती। "लवा शिवं च जिनक्तिरपति भव्य." ॥४॥ वच्छल्लं अणुकंपा अट्टगुणा हंति सम्मत्ते ॥ और दर्शनिक प्रतिमाके स्वरूपकथन (का. १३७) में
-वसुनन्दि श्रावकाचार ४६ सम्यग्दृष्टि के लिये जो 'पञ्चगुरुचरणशरण:'--'पंचगुरुओं
पंचाध्यायी और जाटीसहितामें, इसी गाथाकं उद्धरणके चरण (पादयुगल अथवा पद-वाश्यादिक) ही है एकमात्र
के साथ, अहंद्भक्ति तथा वात्सल्य नामके गुणोंको शरण जिसको' ऐसा जो रिशेषण दिया गया है
संवेगलक्षण गुणके लक्षण बतलाकर सम्यक्तके उपलक्षण तथा अन्यकी अन्तिम कारिकामें जो दृष्टिलक्ष्मी (सम्यग्य
बतलाया है और लिखा है कि वे सवेग गुणके बिना दर्शनमम्पत्ति) को 'जिनपदपद्मप्रेक्षणी' बतलाया गया है
होते ही नही-उनक्तं अस्तित्वसे संवेग गुणका अस्तित्व वह सब भी इसी बातका द्योतक है। पचगुरुसे अभिप्राय
जाना जाता हैपंचपरमेष्टीका है, जिनमसे अहन्त और सिद्ध दोनो यहां
“यथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः । 'प्राप्त' शब्दके द्वारा परिग्रहीत हैं और शेष तीन प्राचार्य
स चोपलक्ष्यते भक्त्या वात्सल्येनाथवाऽवताम् ॥ उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठीका संग्रह 'तपस्वी' शब्दके द्वारा
भक्तिर्वा नाम वात्सल्यं न स्यात्संवेगमन्तग। किया गया है, ऐसा जान पड़ता है । इसके सिवाय, प्रकृत
संवेगो हि दशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणी ॥ पद्यमें वर्णित सम्यग्दर्शनका लक्षण कि सरागसम्यक्त्वका
इसी तरह निन्दा और गह: गुणोंको सम्यक्रवके लपललक्षण है-वीतराग सम्यक्त्वका नहीं, इससे इसमे भक्ति
पण बतलाया है; क्यों क व प्रशम (उपशम) गुणके लक्षण योगके समावेशका होना कोई अस्वाभाविक भी नही है।
है-अभिव्यजक हैं । अर्थात् प्रशम, सवेग, अनुकम्पा और
श्रास्तिक्य ये चार गुणा सम्यग्दर्शनके लक्षण हैं, तो भईद प्रात्यादि कारणे कार्योपचागत् । एतदर शुद्धचतसा भक्ति, वात्सल्य, निन्दा और गहीं ये चार गुण उसके पारमयेणापवर्ग हेतुरिति ।"
उपलक्षण हैं । इससे भी 'भक्ति' सम्यग्दर्शनका गुण १ मराग और वीतराग ऐसे मम्यग्दर्शन के दो भेद है
ठहरता है।
(समाप्त) स द्वधा सरागीतरागविषयभेदात्"
२ देवी, पचाध्यायी उत्तगध, श्लोक ४६७ स ४७६ तथा ___ --सर्वार्थीमद्धि अ. १ मू.२ लाटीमाहता, तृतीयमर्ग श्लोक ११० से ११८ ।
-0-0-- (पं० सूरजचन्द 'सत्यप्रेमी') हे जिनदेव । विनय स्वीकारो ! मन-मंदिर में श्राज पधारो॥ अस्रव रोक बध घायकरके इस भवसागरसे उद्धारो ! अन्ता द पंच परमेश्वर सकल-सघ-पति धर्म-गणेश्वर ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारी मनमंदिरमें भाज पधारो ! समिति-गुप्तका बीज वपन कर इस जीवनका क्षेत्र सुधारो!! धर्माऽधर्माऽऽकाश जीवमय काल और पुद्गलका संचय ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें आज पधारो! पट कर्मों का परिचय देकर नित्यानित्यकांत निवारो !! रागद्वेषकी प्रन्थि छुडानो रत्नत्रयका रूप दिखाओ !! हे जिनदेव! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें प्राज पधारो ! गुणस्थान-सोपान चढ़ाकर अष्टकर्म प्रावरण विदारो ! जगमें स्वार्थोंका प्रचार है, विषय भावका अंधकार है ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारो मनमदिरमें आज पधारो !! सत्यप्रेमके सूर्यचंद्रकी दिम्य ज्योति उरमें विस्तारो !! जीव-जीव विवेक करायो, पुन्य पापका मर्म बताओ! हे जिनवदेव! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें आज पधारो !
विनय स्वीकारो!-.-.