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अनेकान्त
[वष ७
देवागमादिके कर्ता और पस्नकरण्डके कर्ता अपनी भी समन्तभद्र था, परन्तु स्वामी समन्तभद्रमे अपनेको रचनाशैली और विषयकी दृष्टिमे भी एक नहीं मालूम होते। पृथक् बतलानेके लिए इन्होंने प्रापको 'लघु' विशेषण एक तो महान् तार्किक हैं और दूसरे धर्मशास्त्री। जिनमेन सहित लिखा है।
आदि प्राचीन श्राचार्योंने उन्हें वादी वाग्मी गमक और यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पं. पाशाधर तार्किकके रूप में ही उल्लेख किया है. धर्मशास्त्रीके रूपमें श्रादि पिछले विद्वानोने स्वामी समन्तभद्रको ही रत्नकरण्ड नहीं। योगीन्द्र जैमा विशेषण तो उन्हें कहीं भी नहीं का कर्ता माना है। इसके पहलेके विद्वानोंमेमे किस किसने दिया गया।
माना है, इसकी खोज होनी चाहिए। ममन्तभद्र नामके धारण करने वाले विद्वान् और भी प्राप्तमीमामा श्रादिक का ही रनकरण्डके कर्ता हैं. अनेक हो गये हैं जैसे कि अष्टमहस्त्री विषमपदतात्पर्य वादिराजसूरि इस बातको नहीं मानते थे और इसीको स्पष्ट वृत्तिके कर्ता, जो म. म. सतीश चन्द्र विद्याभूषणके अनु. करने के लिए यह नोट लिखा गया है। दोनों को एक विद्ध सार ई. स. १००० के लगभग हुए हैं। नाम तो इनका करनेके लिए अब अन्य प्रमाण आवश्यक हो गये हैं।
रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०-प्रो० हीरालाल जैन एम० ए० )
मैंने अपने 'जैन इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' करण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं मान रहे हैं।" शीर्षक निबन्धमें जो बातें प्रस्तुन की हैं उन पर दो लेख मुझे अाश्चर्य है कि उल्लिखित पंक्तियोंके अन्तर्गत कानपी न्यायाचार्य प. दरबारीलालजी जैन काठियाके अनेकान्त मान्यताको छोड़ देने का न्य याचार्य जीको भ्रम हुआ है। भा० ६ किरण नं. १०-११ तथा १२ इन दो अंकोंमें मैंने जो वहां स्वामी समन्तभद्र कृत स्नकरगड श्रावकार निकल चुके हैं। उनके पहले लेखका शीर्षक है "क्या को एक प्राचीन, उत्तम और मुघमिद्ध ग्रथ कहा है वह में नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?" अाज भी मानता हूँ। वादिराजसूग्नेि नये अक्षय मुग्यावह एवं दूसरे लेखका शीर्षक है "क्या ररनकरण्डश्रावकाचार और प्रभाचन्दने अखिलसागार धर्मको प्रकाशित करन वाला स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?" चूकि दूसरे लेखका सूर्य कहा है। उसमे भी अभी तक मुझे कोई आपत्ति नती विषय हमारी चिन्तनधाराम अधिक निकटवर्ती है अतएव दिखाई देती। उसके पश्चात् अब यदि मैंने कोई यान श्रीर पहले उमी पर यहाँ निचार किया जाता है। इस विषयका अधिक कही है तो केवल यह कि इस रत्नकरगड श्रायका निर्णय हो जानेके पश्चात ही प्रथम लेख सम्बन्धी विषय पर चारके कर्ता स्वामी समन्तभद्र और प्राप्तमीमांमाके कर्ता विचार करना उचित होगा।
स्वामी समन्तभद्र एक ही व्यकि नही प्रतीत होते । यदि लेखके प्रादिमें ही पंडितजीने मेरे द्वारा पटग्य डागम- मैंने उन पूर्व पक्तियों में प्राप्तमीमामा और रनकरगडके जीवस्थानके क्षेत्रस्पर्शनादिकी प्रस्तावना पृष्ट १२ पर लिखित ___ एक कवकी कोई बात कही होती तब तो न्यायाचार्यजी उन पक्तियोको उद्धन किया है जिनमे मैंने नकरण्ड- का उस कथनके आधारसे मुझ पर कोई मान्यता छोड़ देने श्रावकाचारका उल्लेख किया था और उस परमे पडितजी का श्राक्षेप न्याययुक्त था। किन्तु जब मैंने उन पनि योम ने यह भाक्षेप किया है कि "मालूम होता है कि प्रो० मा. दो प्रयोके एक कर्तृत्वका कोई विधान ही नहीं दिया तय ने अपनी वह पूर्व मान्यता छोड्दी है और इसी लिये रत्न- न्यायाचार्यजीका मुझ पर यह प्राक्षेप सर्वधा निर्मूल और