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किरण १, २]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्रात्ममामांसाका कतृत्व
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निराधार सिद्ध होता है। यद्यपि गवेषणाके क्षेत्रमें नये कामवश्यो। उन दोषका केवलीमें प्रभाव समीको स्वीकृत अाधारोंके प्रकाशसे मतपरिवर्तन कोई दोष नहीं है किन्तु है। अब प्रश्न रह जाता। कंबल जुधा, पिपासा, जरा, किसी कथनविशेष परसे निराधार धाक्षेष उपस्थित करना, प्रातङ्क (व्याधि) जन्म और अन्सक (मृत्यु)का। ये दोष कमसे कम न्यायाचार्यजी द्वारा, उचित नहीं कहा जा उन शेष कर्मोंक द्वारा उत्पन्न होते हैं जिनका केवली में मत्व सकता।
और उदय दोनों वर्तमान रहते हैं, अतएव इनका उनमें इसके पश्चात् पंडितजीने क्रमश:-(१) रत्नमाला प्रभाव माननेसे एक सैद्धान्तिक करिनाई उपस्थित होती और रत्नकरण्डकी रचनाओं के भिन्न कालीन होनेके प्रमाण है जिपका उचित समाधान नहीं मिल रहा। उपस्थित किये हैं। (२) रत्नकरण्डके समान स्वयभूस्तोत्रमें अब यहाँ विचारणीय प्रश्न यह कि जिस प्रकार केवली क्षुधादि वेदनायोके अभाव माने जानेके उसलेख रस्नकरण्डकारने प्राप्तमें इन प्राधातिया कोसे उत्पन्न पेश किये हैं; (३) मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई श्राप्तमीमांसा प्रवृत्तियोका प्रभाव प्रतिपादित किया है उसी प्रकार उनके की कारिका १३ का अर्थ ऐसा बैठानेका प्रयत्न किया है
प्रभावका प्रतिपादन क्या कहीं प्रप्तमीमांसाकारने भी दिया
, जिसमे उसके द्वारा केवलीमे सुख दुखकी वेदनाका सद्भाव है न्यायाचार्यजी प्राप्तमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमे सो सिद्ध न हो; एवं (४) सनकरण्ड व युक्त्यनुशामनादि मंथों कोई एक भी ऐसा उल्लेख प्रस्तुत नही कर सके जिपमें से कुछ तुलनात्मक वाक्य पस्तुत कर उन सबको एक ही।
उक्त मान्यताका विधान पाया जाता हो। यथार्थत: यदि ग्रन्थकारकी कृतियां प्रकट की हैं। इन परसे मेरे सन्मुख प्राप्तमीमामाकारको प्राप्तम उन प्रवृत्तियों का प्रभाव मानना विचारके लिये निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं--
अभीष्ट था तो उसके प्रतिपणामक लिये सबमे उपयुक्त (१) क्या रनकरण्ड के समान कंवलीके खुधादि वेद
__ स्थन वहीं ग्रन्थ था जहां उन्होंने भारत के ही स्वरूपकी नाओंका प्रभाव स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसादि
मीमांसा की है, उन्हें वहां ही इनकी सायवना भी सिद्ध कृतियों में भी बतलाया गया।
करना थी। किन्नु यह बात नहीं पाई जाती। इससे न्या(२) क्या प्राप्तमीमामाकी कारिका ६३ फा यथार्थत:
याचार्य जी ने श्रातमीमापा व युन यनुशासनका कोई वह अर्थ नहीं है जैसा कि मैंने समझा है"
उल्लेख प्रस्तुत न कर अपने मतकी पुष्टिमे स्वयभूस्तोत्रके (३) क्या बाह्य और अन्तरग प्रमाणोंम धातमीमांसा
कुछ अवतरण उपस्थित किये हैं। जिस प्रकार ये उल्लेग्य और रम्नकरण्डका एक कर्तृव सिद्ध होता है?
मप्रव किये गये हैं उसमे जन होता है कि पांडतजीने यहां मैं इन तीन बानी पर विचार करूंगा।
ग्रन्थकारकी ममम्त कृतियाँको बजनी कर डा। तावे प्रथम बानकी ऊहापोर में पंडित जाने जिस प्रकार
ये उल्लेख प्राप्त कर सके हैं। इससे आप मुझे विश्वास उल्लेख प्रस्तुत किये है उनको देखते हुए मुझे इस बातकी
होता है कि इनके अतिरिक्त, अब इस मत्तकी पुष्टिक अब भी आवश्यकता प्रतीत होती है कि यहां सबसे
उल्लेख वाम! समन्मभद्र की कृतियोम मिमा प्रायः पहले मैं अपने दृष्टिकोणको स्पष्ट करदें। केवलीमे चार
असम्भव ही है। धातिया कर्मोका नाश हो चुका है, प्रकार उन कोम प्रथमत: पंडितजीने स्वयममात्रका 15 वो शोष उत्पन्न दोषोंका केवली में प्रभाव मानने में कही कोई मतभेद प्रस्तुत किया है और उस पर यह निष्कर्ष निकाना है कि नहीं है। रामकरण्डके छठवे श्लोक्में उल्लिवित दोपॉम यहाँ "समन्तभद्र कितने मोमे भातियतीक इस प्रकार के पांच दोष हैं---भय, मय, राग, द्वेष और आहारादिक अभाव। श्री। सुधादि मुग्व-दुख घेदनाओं मोह । अतएव इन दोपोक केवलीमें प्रभावके सम्बन्धके प्रभावका प्रतिपादन करने हैं। किन्तु यहुन प्रयान करनेपर उल्लेख प्रस्तुत करना अनावश्यक है। पडितजी द्वारा भी मुझे उस लोकमे केवली धादि वेदनाभोंके प्रभाव प्रस्तुत किये गये ऐसे विशेषणामा उल्लेख हैं-निमोह, का कोई प्रतिपादन दिग्वाई नही दिया। जहां तक मैं ममम गतमदमायः वीतराग, विवानगर, स्नेहो वृथात्रेति, भय- सका है उस श्लोकका अर्थ यह है-- धादि दुखांक