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भनेकान्त
[वर्ष ७
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कालमें मथुराके यदुवंशी राजा समुद्रविजयने द्वारकामे जैनधर्मकी प्रवृत्ति भी इस राज्य में प्राचीनतम कालसे चली अपना राज्य स्थापन किया था। उनके पश्चात् उनके आती थी। महावीर कालमे यह राज्य समस्त तामिल प्रान्त भतीजे नारायण कृष्ण राज्यके उत्तराधिकारी हए । कृष्ण में सर्वोपरि था, चेर, चोल, केरलपुत्र, सत्यपुत्र, आदि अन्य महाराजके ताऊजाद भाई २२ वें जैनतीर्थकर अरिष्टनेमि थे। तामिल राज्य तथा लंका आदि द्वीप इसके प्राधीन थे और कृष्णकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है तब कोई कारण नही ईस्वी सन्के प्रारंभ तक वैसे ही चलते रहे । पाड्य राज्यकी कि अरिष्टनेमिको भी एक एतिहासिक व्यक्ति न माना जाय? राजधानी मदुरा दक्षिण में जैनोंका सबसे बड़ा केन्द्र था दूसरे, उनका स्वतन्त्र अस्तित्व वैदिक तथा हिन्दु पौराणक तामिल के प्रसिद्ध संगम साहित्यका अधिकाश जैन पाड्य साहित्यसे भी सिद्ध है। जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा राजाश्रोकी छत्रछायाम प्रकाँड विद्वानों द्वारा ही निर्मित चुका है वह काल उत्तरीभारतमें वैदिक सभ्यताके चरमो. हुअा था । जैन मौर्यसम्राट तथा कलिङ्ग नरेश जैन खारवेल त्कर्षका था । यशादिमे ही नहीं, विवाहादि उत्सवोके अवसर से पाड्य नरेशोंका मैत्री संबंध था। लंका श्रादि द्वीपोमे भी खान पानके हित विपुल पशुहिसा होती थी। अपने विवाहके ई० पूर्व की छठी शताब्दीके स्तूप श्रादि जैन अवशेष मिले उपलक्षम वैसी हिंसाका आयोजन देख ब्रह्मचारी कुमार है। अशोकके सगयसे लंकामे अवश्य ही बौद्ध धर्मका नेमिनाथको वैराग्य होगया, जूनागढ़ (श्वसुरालय) के निकट प्रचार होना प्रारंभ होगया, किन्तु तामिल राज्योंमे सन् ई. विवाहका संकल्प त्याग घर छोड़ गिरनार पर्वतपर जाकर ६ ठी ७ वी शताब्दी तक जैनधर्मको प्रवृत्ति रही। उसके सपश्चरण करने लगे। केवलज्ञान प्राप्त कर जनतामें अहिंमा उपरान्त शैव तथा वैष्णव धर्मोके नवप्रचारके कारण तथा धर्मका प्रचार किया, मध्यभारत एवं दक्षिणापथमें जैनधर्मका तत्संबंधित राज्यवंशोके धर्म परिवर्तनके कारए जैनधर्मकी पुनरुद्धार किया। और उस प्रान्त में उस समयसे जैनधर्म प्रगतिको श्राघात पहुंचा और वहाँ उसका हास प्रारंभ अस्खलित रूपमें ईस्वी सन्की ६ ठी ७ वी शताब्दी तक तो होगया। सारे ही दक्षिण में तथा कुछएक प्रान्तोंमे १३ वी १४ वी लाढ़ अथवा गधा मध्योत्तर दक्षिण भारतका राज्य शताब्दी तक प्रधानरूपसे चलता रहा । इस प्रान्त (कच्छ) था। यहाँ महावीरकालमें राष्ट्रिक, भोजक, आन्ध्र आदि में कुछ काल तक तो जैनधर्म प्रधान यदुवंशका राज्य चला अनार्य राज्योकी सत्ता थी। उसके पूर्व वहाँ यक्ष, विद्याधर तदुपरान्त पार्श्वनाथके समय पाटल (सिन्ध) के नागोंका श्रादि जैन अनार्य राज्य थे, ई. पू. प्रथम शताब्दीमे
आधिपत्य होगया। तदुपरान्त सिन्धु सौवीरके व्रात्य, तथा ही प्रान्ध्र राज्य सर्वोपरि होगया और उसने अन्य पड़ोसी मालवेक मल्ल ब्रात्योका अधिकार रहा । मौर्य राजाश्रोने सत्तारोको अपने में गभित कर साम्राज्यका रूप ले लिया। अपनी विजयपताका उस प्रान्त तक पहुँचा दी थी। किन्तु ये सर्व राज्य और इनकी प्रजा अधिकतर अन्त तक व्रात्य मौर्योके पश्चात् सिन्धुकी अोरसे आने वाले शक छत्रपोका सस्कृतिकी पालक और जैनधर्मानुयायी ही रही। यहाँ गज्य रहा। कुछ काल आन्ध्रोंके अाधीन यह देश श्राबाह पश्चिमोत्तर प्रान्त था । बौद्ध अनुश्रतिके गाधार, रहा । अन्त में सोलंकियोके समय इसका विशेष उत्कर्ष हुआ। कम्बोज और जैन अनुश्रुतिके तक्षशिला तथा उरगयन इस प्रान्तमें महाभारतके समयसे लगा कर १५ वी १६ वीं नामक नाग गणराज्योका यह एक संघ था। ये नाग लोग शताब्दी ईस्वी तक जैनधर्मकी प्रधानता बनी रही। अनेक वैदिक आर्य-संस्कृति के विरोधी और व्रात्य-संस्कृतिके जैनतीर्थ, विपुल जैन पुरातत्व इस प्रान्त में हैं। अनेक विद्वान पोषक थे। दिगम्बर श्वेताम्बर जैनाचार्योने इस प्रान्त मे विशाल जैन- सम्भुत्तर महाजनपद मध्य पजाबका प्रसिद्ध व्रात्य साहित्यका निर्माण किया । श्राज भी वहाँ जैनोंकी संख्या क्षत्रियोंका राज्य था। सैन्धवानके साम्भव लोग भगवान पर्याप्त और उनकी समृद्धि सर्वाधिक है।
संभवनाथ (३रे तीर्थंकर, जिनका चिन्ह विशेष 'प्रश्व' था) पाढ अर्थात् पाड्य सुदूर दक्षिणका प्रसिद्ध तामिलराज्य के अनुयायी थे। इस राज्यकी सत्ता सिकन्दर महानके था। अति प्राचीनकालसे इस प्रनार्य राज्यकी स्थिति थी, आक्रमण के समय भी थी। सिकन्दरने भयङ्कर युद्ध के पश्चात्