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किरण १-२]
शिवभूति, शिवार्य और शिनकुमार
सम्पूर्ण-मापना-द्वारा अपना चरम श्राध्यामिक विकाम कर अपने माचे में ढाल तो लिया, लेकिन उन पर्वोके पवित्र लिया है, या इसके द्वारा अपना नैतिक धरातल ऊँचा ध्येयको भुला दिया, जिसमें वे सर्वसाधारणको अपने उस उठाकर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया । अथवा जिन्होंने ध्येयसे प्रेरित न कर सके, बल्कि कंवल मनोरंजन और धर्म, धर्मायतन या धार्मिकोंका संरक्षण किण या उन्हें विनोदके साधन बन गये। जैसे दिवाली भाज मिठाइयों अग्ना उदार सहयोग प्रदान किया। कुछ भी हो, यह सब और रोशनाका त्योहार रह गया है। उसका ध्येय भ. भी रत्नत्रयमे गर्भित हो सकता है और इस प्रकार हम महावीरक निर्वाणके उपजचपमें उनके पवित्र जीवनका नि.संकोच कह सकते हैं कि जैन पर्वोका उद्देश्य रस्नत्रय स्मरण या गौतम गयाभरकी ज्ञानप्राप्तिके उपलक्ष्य में की माना है। इनकी चरितार्थता और उपयोगिता भी यही सम्यग्ज्ञानका अर्जन था, वह भुला दिया। निश्चय ही यह है । जैसे--श्रुतपंचमी, वीरशासन-जयन्ती प्रादि मम्यग्ज्ञान खेदजनक स्थिति मतत-प्रचारमे दूर की जा सकती है। के मारापनके लिये हैं । दशलक्षया पर्व, अष्टाहिका, लेकिन इस ओर कभी प्रयत्न ही नहीं किया गया, न प्रचार मोनहकारणवत रविवत आदि अनेकों बन मम्याचारित्र ही हुश्रा और न माहित्य-वितरण ही। अस्तु । पदौसी संस्क की मापनाके लिये हैं । महावीर-जयन्ती, अक्षयतृतीया, तियाँ प्रापममें एक दूसरम बहुत कुछ लेती देती हैं और रक्षाबन्धन पर्व, दिवाला, अपभजयन्ती आदि उन महा- जैनसस्कृतिको गर्व है कि उसने अपनी बहिन संस्कृतियोंको नुभावों के स्मरण के लिये हैं, जिन्होंने बस्नत्रयकी माधना जो दिया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है और जो उससे कहीं की या जिन्होंने धर्म और धार्मिकों की रक्षा की।
अधिक मूल्यवान है, जो उसने दूपरी संस्कृतियों लिया। म तरह हम देखते हैं कि जैन पौंका एक निश्रित दृष्टिकोण और समीष्टिकोणको लेकर वे न तो केवल नोट-इमके अनन्तर लेग्वमें महावीर-जयन्ती, अक्षयतृतीया जैन मस्कृति के अनुयायियोंकी ही वग्न मम्पूर्ण भारतीयोंको श्रुतपंचमी, वीर-शामन-जयन्नी, रक्षाबन्धन, पयूषगा, नवजीवन, स्फूर्ति और माध्यात्मिक प्रेरणा देते भारहे हैं। क्षमावा और दीपावली जैसे पौंका कुछ परिचय अगर जैनेतर संस्कृतियोंने उपके पौंको अपनाया है तो दिया गया है और अष्टान्दिका जैमें कुछ पोंकी इसमें जैन सस्कृति का विशेष महत्व ही प्रगट हुमा है और नाममात्र सूचना भी की गई है। लेग्वका यह अंश इममे उसको प्रसन्नता हीहै। लेकिन इतना खेद भी स्थानाभावके कारण नही दिया जा सका। अवश्य है कि जनेतर संस्कृतियोंने उसके पर्यों को अपनाकर
सम्पादक
शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार
(लेग्वक-६० परमानन्द जैन, शाम्री )
प्रो.हीरालालजी जैन एम० ए० (अमरावती) ने प्रकाशित किया है और उसमें यह सिद्ध करनेका यत्न हालमें 'शिवभूति और शिवार्य' नामका एक लेख किया है कि मावश्यक मनभाष्य और श्वे. स्थविगवली * यह लेख पहले अंग्रेजीम नागपुर यूनिवमिटीके जर्नल में वोटिक संघ (दिगम्बर जैन सम्प्रदाय ) के संस्थापक
न०६ में प्रकाशित हुआ था और अब एक ट्रैक्टरूपसे जिन 'शिवभूति' का उल्लेख है वे कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत हिन्दीमें प्रकट हुश्रा है।
भावपाहुडकी ५३ वी गाथामें उल्लिखित 'शिवभूति'.