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अनकान्त
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भगवती पारावनाके का 'शिवार्य और उक्त भावपाहु यहाँ भी कुन्दकुन्दका अभिप्राय इही शिवायंस हो तो की वी गाथामे वर्णित 'शिवकुमार' में भिक नही हैं- आश्चर्य नहीं। उनके उपदेशका उपचारमं उनमें सद्भाव चारों एक ही व्यक्ति हैं अथवा होने चाहिये । और इस मान लेना असभव नहीं है।" (प्रथम लेख) एकताको मानकर अथवा इसके प्राधारपर ही आप जैन "मैंने अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेखमें इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' नामका वह लेख लिग्वन में मूलभाष्य में उल्लिखित बोटिक मघक संस्थापक शिवभूतिको प्रवृत्त हुए हैं जिसे आपने अखिल भारतवर्षीय प्राध्य. एक ओर कल्पमूत्र-स्थविगवलीके आर्य शिवभूति और सम्मेलनके १२ वें अधिवेशन बनारममें अग्रेजी भाषामें दूसरी ओर दिगम्बर प्रन्थ पागधनाके कर्ता शिवार्यमे पढ़ा था, जो बादको हिन्दीमें अनुवादित करके प्रकाशित अभिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है जिससे उक्त तीनों किया गया और जो अाजकल जैन समाजमें चर्चा का विषय नामोंका एक ही व्यक्तिमे अभिप्राय पाया जाता है जो बना हुआ है। इस विषय में प्रोफेसर माहबके दोनों लेखाके महावीरके निर्वाण ६०६ वर्ष पश्नात प्रसिद्धि में पाये। निम्न वाक्य ध्यान रखने योग्य हैं
मूल भाष्यको जिन गाथाओंपरमे मैंने अपना अन्वेषण "आवश्यक मूलभाष्यकी बहुधा उल्लिखित की जाने प्रारम्भ किया था उनमेंका एक गाथामें शिवभूतिकी परंपरा वाली कुछ गाथाओंके अनुसार वोटिक संघकी स्थापना महा- में कोडिनकुहवीर' का उल्लेख पाया है, अतः प्रस्तुत वीरक निर्वाणसे ६.१ वर्षके पश्चात रहवीरपुरम शिवभूतिके जेवका विषय शिवभनि अपर नाम शिवार्य उत्तराधिकानायकत्वमें हुई, वोटिकोको बहुधा दिगम्बगेम अभिम माना रियोंकी खोज करना है।" (द्वितीय लेख) जाता है, अत: श्वेताम्बर पट्टावलियोम वीरनिवागामे ६०६ वर्ष अब मैं अपने पाठकोपर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं पश्चात दिगम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिाउल्लेख किया गयाहै।" कि प्रो. माहबने जिन दो शिवभूतियों. शिवार्य और
'श्वेताम्बरोंद्वारा सुरक्षित प्राचार्योकी पट्टावलियोंमें शिवकुमारको एक व्यकि सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है वह कल्पसूत्र-स्थविरावली सबसे प्राचीन समझी जाती है। बहुत ही पदोष तथा प्रात्तिके योग्य है। ये चारों एक इसमें हमे फग्गुमित्तके उत्तराधिकारी धनगिरिक पश्चात् व्यक्ति नही थे और न किमी नाहपर एक व्यक्ति सिद्ध शिवभूतिका उल्लेख मिलता है। ये ही शिवभूति मूल ही होते हैं, जैसा कि निम्न प्रमाणसिं प्रकट है:भाष्यमें उल्लिखिन शिवभूतिमे अभिम प्रतीत होते हैं।" (1) भावगहुडकी ५३ वी गाथामे जिन 'शिवभूति' ___ "कुन्दकुन्दाचार्यने अपने भावपाहुडकी गाथा ५३ में शिव का -ल्लेख है वे केवल ज्ञानी थे. जैसा कि उस गाथाके भूतिका उल्लेख बड़े मम्मान किया है और कहा है कि वे महा- 'केवलग्नागी फुडं जात्रा' इन शब्दोंपरसे स्पष्ट है। नुभाव तुष-माषकी घोषणा करते हुए भावविशुद्ध होकर कंवल. स्थविगवलीके शिवभूति और भगवती पाराधनाके 'शिवार्य' ज्ञानी हुए । प्रसंगपर ध्यान देने से यहाँ ऐसे ही मुनिसे तात्पर्य दोनो हा कंवलज्ञानी न होकर छमस्थ थे-जम्बूस्वामीक प्रतीत होता है जो द्रव्यलिंगीन होकर केवल भावलिंगी मुनि बाद कोह केवलज्ञानी हुआ भी नहीं। भ. पाराधनाके कर्ता थे। ये शिवभूति अन्य कोई नहीं वे ही स्थविरावलीक शिवार्य स्वयं गाथा न. २१६७ में अपनेको बास्थ लिखते हैं शिवभूति और श्राराधनाके कर्ता शिवार्य ही होना चाहिये। और प्रवचनके विरुद्ध यदि कुछ निबद्ध होगया हो तो गीतार्थों
__ "भावपाहुस्की गाथा ११ में शिवकुमार नामक भाव- से उसके सशोधनकी प्रार्थना भी करते हैं। यथा:श्रमणका उल्लेख है जो युवतिजनसे वेष्ठित होते हुए भी छदुमत्थारा एत्थ दुजं बद्धं पवयणविरुद्धं । विशुद्धमति रहकर संसारमे पार उतर गये । इसका जब सोधेतु मुगीदत्था तं पवयणवच्छलत्ताए। हम भगवती भाराधनाकी ११०० से १११६ तककी अत: ये तीनों एक व्यक्ति नही हो सकते । गाथाओंसे मिलान करते हैं जहाँ स्त्रियों और भोगविलासमें (२) केवलज्ञानीको मर्वज्ञ न मानकर मात्र निर्मलज्ञानी रहकर भी उनके विषसे बच निकलनेका सुन्दर उपदेश माननेसे भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि भावपाहुड़की दिया गया है तो हमें यह भी सन्देह होने लगता है कि उक्तगाथा ५३ में 'तुममास घोसंता' पदोकेद्वारा शिवभूतिको