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किरणा १-२
शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार
'बीजबुद्धि' सूचित किया है और जो बीजबुद्धि होते हैं व विदेहक्षेत्र स्थित महापन चक्रवर्तीके पुत्र थे मागरचन्द्र पक पदके प्राधारपर सकल श्रतका विनारकर उसे ग्रहण मुनीन्द्र अपने पूर्वभव श्रवण कर विरक्त होगये थे और करते हैं तथा मोक्ष जाते हैं। चुनाचे प्राचार्य वीरसेनने मुनि होते होते पिताके तीव्र अनुरोधवश घरमे इस प्राश्वा. श्रानी धवला टीका, वंदना अपर नाम कम्माय डि पाहुडके मनको पाकर रहे थे कि वे घरमें रहते यथेप्सित रूपसे चौथ कम्म' अनुयोगद्वारका वर्णन करते हुए, ध्यान-विषयक उग्रनप तथा ब्रतादिकका अनुष्ठान कर सकेगे । चुनींचे मुनि जो शंका-समाधान दिया है उसमें स्पष्ट रूपमे शिवभूतिको वषको न धारण करते हुए भी वे घरमै भावापेक्षा मुनिके बीजबुद्धि ध्यानका पात्र और मोक्षगामी सूचित किया है। ममान रहते थे, अपन। अनेक स्त्रियोंमें घिरे रह कर भी जैसाकि उसके निम्न अंशमे प्रकट है .--
कमल पत्रकी तरह निलिप्त, निर्विकार और प्रकामी रहकर । जदि णवपयवमयणाणणव मागाम्म यभवो पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते थे, जैसा कि जम्बू स्वामीचरित्र होह, तो चोहम-दम-वपुब्वधर मात्तण अगणसि पि माणं और उत्तरपुराणके निम्न वाक्योम प्रक्ट है:-- किराणा संपज्जदे ? चोहम-दस-णव-पुवेहि विणा थोत्रण "एवमस्तु करिष्ये ऽहं यथा तात ! मनीषितम् ।।१५।। वि गंधेण णवपयथा-नगमो-वल भादो। ण थोवेण गंथंण कुमारस्तादनान्नूनं सर्वमंगपराव मुम्बः । गिस्सेसमवगंतु बीजबुद्धिमुणिणो मोनण अराणे मिमुवाया- ब्रह्मचायकवम् ऽपि मुनिवत्तिने गृहे ।। १६०|| भावादो । जीवाजीवपुरणपावभासवसवाणिजराबध- अकामी कामिनां मध्ये स्थिती वारिजपत्रवत।" ज.च. मोक्वहि ण वहि पगन्थेहि दि रित्तमण ण कि पि अस्थि “दिनयत्री-सन्निधौ स्थित्वा सदाऽविकृतचेतमा। श्रण वलंभादो। नम्हा गा थोवण सुदेण पदे श्रवगंतुं तृणाय मन्यमानम्ता तपो द्वादशवत्मरान ॥२०७॥ सक्किाजंते विरोहादो । ण च दचसुदेण पन्थ अहियारो, चन्निव निशानासिधारायां संप्रवर्तयन् । योग्गल वियारस्प जलस्समायोलिगभूदास मुदत्तविगेहादो। संन्यम्य जीवितप्रान्ते कल्पे ब्रह्मेन्द्रनामनि ।।" २०१० जानवरदेगा अवगमार्गमगवपयत्थागणं मिवभृदि- श्रत इन शिवकुमारको पाराधनाके कर्ता शिवार्य आदिबीजबद्धीण भागाभावेगा मक्विाभावःयमंगादो। मान लेना भलमे खाली नहीं है। और यह कल्पना तो
--धवला. खतौली प्रति प० ६२६ बडी ही विचित्र जान पड़ती है कि शिवार्यने चूंकि स्त्रीजनो जब ये शिवभूति मोक्ष गये हैं और मोक्ष जाना विना और विषयोंके विषसे बच निकलनेका उपदेश दिया है केवल ज्ञान (मर्वजना) की उत्पत्तिके नहीं बनता, तब वे
इसलिये श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने उपचारसे उन्हींको मात्र निर्मलज्ञानी न कहे जाकर सर्वज्ञ ही कहे जायेंगे और
युवतिजनोंसे वेष्टित विशुद्धमति मान लिया होगा और यही भावपाहुडकी उक्त गाथा ५३ में केवलणाणी' पदसे
शिवकुमार नामसे उल्लेखित कर दिया होगा ! परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्यको विवक्षित है। और इलिये म्थ.
गाथामे शिवकुमारको द्रव्यरूपमे श्रमण न बतलाकर केवल विरावलीके शिवभूति तथा श्राराधनाके शिवार्यके साथ
भावरूपसे श्रमण बतलाया है और आराधनाके कर्ता इनका एक व्यक्तित्व घटित नही हो सकता। वे दोनों न तो
शिवार्य द्रव्यरूपसे भी श्रमण थे, साथ ही, युवतिजनों बीजबुद्धि थे और न मोक्ष ही गये हैं।
परिवेष्टित रहनेका उनके साथ कोई प्रसग भी नहीं था। (३) भावपाहडकी ५१ वी गाथामें जिन शिवकुमारका बालन शिवमारको शिवार्य नही राय उल्लेख है उन्हें इसी गाथामें युवतिजनसे वेष्टित, विशुद्ध
सकता और न उक्त दोनों शिवभूतियोंके माथ उसका एक मति और धीर भावश्रमण लिम्बा है-द्रव्यश्रमण नही तथा
व्यक्तित्व ही स्थापित किया जा सकता है । स्थविगवलीके 'परीतसमारी' हुया बतलाया है, और यह उन शिवकुमार
शिवभूतिकी गुरुपरम्परा भी शिवार्यकी गुरुपरम्परा का प्रसिद्ध पौराणिक अथवा ऐतिहामिक उल्लेख है जो
नहीं मिलती-शिवार्यने अाराधनामें अपने गुरुत्रोंका अन्तिम केवली श्रीजम्बृस्वामीके पूर्व ( तीसरे ) भवके
नाम प्रार्य जिननन्दी, सर्वगुप्तगणी और प्रार्य मित्रनन्दी * देखो, तिलोयपएगानी ४-६७६-७६
दिया है जब कि स्थविरावलीमे शिवभूतिको धनगिरि