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अनेकान्त
स्वयंवरा ! [ पौराणिक खण्ड-काव्य* ] रचयिता स्व० 'भगवत' न
कुछ कहने लगे- 'राज्यका सम्बाद है पाया ! शक्कीकी इसलिए ही फोटोने या !! लगता है वीर बांका कि मज़बूत है काया । इसपर भी मात खाए तो भगवानकी माया !!"
लक्ष्मणको सुन पड़ी जो अधूरी मी ये कथा ! आगे न बढ़ सका कि जगी मनके कुछ व्यथा !! बोला कि 'भाई! मुझको कहो माजरा क्या है ? शक्की फोड केलनेको किसने बढ़ा है ? उनमें एक बोला- 'क्या तुमको न पता है ? इम राजदुलारीकी तो मशहूर कथा है
'शत्रु' राजा शक्ति शीर्षके भारी ! ''उन्हीं की है एक राजकुमारी !! मौन्दर्यकी प्रतिमा है गुणोंमे हरी भरी । भ्रम होता देखते ही नहीं है या किसरी !! कमला व दमन दोनोंकी जिसने प्रभा हरी ! यस दिन समझिए कि हैदरी !!
अपने अनूप रूपका उसको घमण्ड है । यह और भी यों है कि पिता भी प्रचण्ड है !! घृणा है कि नाम तक नही भाता ! पुलिंग शब्द कोई हो वह नहीं पाता !! इतनी है कढाई कि कहा कुछ नहीं जाता ! 'लोटा' भी उसके सामने 'लुटिया' है कहाता !!"
सुना रहा रघुवीर मुँह नहीं खोला ! चुप रहके तनिक कहनेवाला आप ही बोला !! महकी ये घोषणा दुनियामें है जाहिर ! गोवा की है घर के लिए मौत मुकरिंर !! जो मेरी शक्ति घोटको सह लेगा वीर-नर ! जितपद्माकुमारीका वही हो सकेगा बर !! महाराजकी शीसे भला कौन बचेगा ? वह मूर्ख ही होगा जो प्राण इस तरह देगा !! अनेकान के लिये छोड गये हैं, ऐसी भगवत्पाठकको अर्पित है।
-सम्पादक
के दिन थे कि मुमीवनका वक्त था ! मण भी साथ में था जी भाईका भक्त था !! सीता थी, हृदय जिसका पती-प्रेमास था ! तीनों भरा गोया मुहब्बतका रक्त था !!
थे खुश, न परेशानीका मुँहपर निशान था ! यह इसलिए ही था कि भरा दिल में ज्ञान था !! खाते थे सभी, प्रेमसहित तोड़के वन फल ! करनों अपनी प्यास बुझाते थे लेके जल !! मोने विद्या भूमि मेम्बल! चलते ये कीड़ा करते हुए बादल !! कमोंकी कुटिलताकी थी ये कर कहानी वन वनमें जो रही थी भटक रामकी रानी !! सीता थी, जिस स्वामीकी सेवाका घाव था ! मोते हुए भी जागता राघत्रका ख्वाब था !! रघुबरका हृदय सौम्यतामें लाजवाब था ! मया था चपल, कौतुकी उसका स्वभाव था !!
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धानन्द-मन, दिल में अभय लंके विसरते । आप ये लेमोन' के निकट घूमते-फिरते !! जब बैठे मिटा भोजन के उपरको !
ने कहा- भैय्या कुमयों दो!! तब बोले राम- 'क्या ?' उठा अपनी नको ! बोला कि हुक्म हो तो देखा नगरको !!" आदेश राघवेन्द्र बिदा किया ! देकर बहु वीर वीर पुर' के सभी पथ चल दिया ! पग धरते हुए जैसे हो धरतीको कँपाता ! पुर-जनमे उसे देखा यो बाजार थाना !! सब देख उठे, छोड़के धन्धेकी माता ! यह यो कि वीर-वेष जो था मनको लुभाता !!
आपसने जगे कहने- 'भद्र रूप है कैसा १ प्रांखोने नहीं आज तक देखा था ऐसा !' का भी
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• यह और एक दूसरा और ऐसे दो
'भगवत्' जी भवनमे सुचना मिली है। अतः उनकी यह कृति ज्योंकी त्यों अनेकान्त
[ वष ७
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