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किरण ७८
स्वयंवरा
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कन्याकी बात क्या है स्वर्ग-राज्य भी पाए ! स्वीकार किसे होगा कि जो प्राण गवाए। प्रणापे मूल्यवान क्या है, कोई बताए ? जय प्राण ही गए तो कोई पाए या जाए?
कन्यामें गोया मृत्युका इतिहास लिखा है !
नादान-पतंगोंके लिये दीप-शिला है !! है किमको मोह मौतसे, जो भागको चाहे ? है कौन जो राजाी कुटिलताको सराहे ? मामर्थ है किमी कि जो शक्तीको निभाहे ? है कौन भाग्यवान जी कन्याको विवाहं ?'
सुनकरके सुमित्राका नन्द कह उठा मनमें !
'है कितनी अकर्मण्यता इस नरके वचन मे !! वह क्या है परुष जो कि है पुरुषावसे रीता! निग बलक परखने का भी जिसको न सुभीता!! कमजोरियों में जिन्दगीका वक्त ही बोता ! जीवनका समर जिमये नहीं जा सका जीता!!'
फिर मुस्कराके कहने लगा, रामका भाई !
'हे भद्र ! बात आपने ये खूब सुनाई !! फिर आगे बढ़ा, छोद नगर-वासियोंका दन! मनमे था ममाय। हुधा इस वक्त कुतूहल !! देख है केपी कन्या, जो दुनियाको अमंगल ! रग्बते हैं प्रजापाल भी शक्तीका कितना बल
पहले तो सुनके मनमे जरा क्रोध-पा पाया।
पर, देखनकी वालपाने उसको दबाया !! फिर क्या था, अपने पाप दोनों बढ़ने लगे पग! मनका इशारा पाक पकर बैठे राज-मग !! रह सकते कहां पग थे मनके हुक्मसे अलग! उत्सुक था क्योंकि देखने को जिस्मका रग-रग !!
देखे गगनको छूते-से, वैभव-भरे महल !
सुन्दर थे सुर-विमान-से, थे पुण्य-से उज्वल !! पाया प्रवेश द्वार सुमित्राका दुलारा ! बोला-' है देखना मुझे शक्तीका नजारा !!' प्रहरीने कहा 'भद्र ! क्या परिचय है तुम्हारा 'सेवक हूँ भरतका मैं! ये लक्ष्मणाने उभारा!!
गंभीर गिरा, वीर-वेश, इन्द्र-सी काया ! प्रहरीने देख पाई को सिर अपना मुकाया !!
FAITHILINE
प्राज्ञा ले महीपतिकी भृत्य ने पला भीतर! बैठे थे नृपति, योदा तथा दूसरे अफसर !! दारमें, वीरस्यका फैला था समुन्दर ! लेकिन नहीं समाने झुकाया किमीको सर !!
बोला बो निडर होके गरजते हुए स्वरमें !
भाया हो गोषा शेर-बबर स्थानके घरमें !! 'कहां कहाँ है तेरी अधम राजकुमारी ! उद्यत है अहंकारकी लेकर जो कटारी !! कन्या है, काल-क्न्या है कि कालकी पारी गौ है वो मरखनी, कि पाषाणकी नारी?'
आए थे तब तो मुग्ध हुए थे समाके जन !
अब कांप उठे मन, जो सुने वन-से बचन !! महाराजके मन में भी विषेला विकार था ! वह नाम होचुका था कि माया जो प्यार था!! श्रादी थे, यो सम्मानको दिल बेकरार था! लघमण प्रणाम-हीन था, यह नागवार था !!
खामोश थे अपने में नहीं लग पा हिसाया!
अब रह सकें खामोश, ये मुश्किल-सा दिखाया जलने लगी थी मनमें कुटिल-कोवकी ज्याला ! मुंह सुखं था, पाखें हुई थी रक्तका प्याला॥ कुछ मौन रहे, क्योंकि या भावेशका ताला! फिर क्रोधने ललकारके वाणीको निकाला !!
बोले कि 'कहाँ, कौन होभाय होक्यों यहां!
मैं चाहता हूँ जानना रहते हो तुम कहां?' लक्ष्मणका तभी गूजा वही फिरसं कराठ-स्वर! 'मैं हूँ प्रतापशाली भरत-राजका अनुचर !! दुनियाकी शैर करनेको निकला हूँ छोड़ घर ! यो घूमते-फिरते हुए भाया है महापर !!
भाकर सुनी यहां, तेरी कन्याकी कहानी !
पाकर पिताके बलको हुई जो दिवानी !! है देखना मुझको, दिखा शक्तीका नजारा ! सुन लोग जिसके नामको करते है किमारा!! कन्या अहंकारका है जिसको महारा ! बैठा जो बहाने किसीके खूनकी धारा !!"
बाबीको दे विश्राम थे बैठे हुए भूपाल! गो, अब रहा था दिल कि थीं मां भी लात-बार