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अनेकान्त
वे बोले, तबक करके रंग क्रोध जो लाया ! 'नादान ! क्यों मरने के लिये सामने पाया ? होकर उदयर. क्यों बमपर है लुभाया ? मा भाग, बच्चा करके जवानी-भरी काया !!"
ल चमणको हंसी भाई, हसे कोरसे इसपर !
धरती-सी लगी कांपने, थर्रा गया अम्बर !! मारी सभामें उस समय प्रातक छा गया। गज-मुरडमें जैसे कि हो गजराज भा गया !! धहरोंका नर सबका, एकदम बिमा गया! योन्द्रा था मगर फिर भी नृपति तिलमिला गया !!
जितपमा कुमारी भी झरोखेमें भा गई !
देखा जो सुमित्राका नन्द, मुस्करा गई !! मन जाने लगा हाथसे, मर्यादसे बाहर ! गोया थे निकल पाए उसके मन में भाज 'पर'' मधमणका रूप देख मुग्ध होगया अन्तर ! प्रावेशसे, प्रानन्दसे नीची हुई नजर !!
मनका गरूर दूर था मनहूस प्रभागा !
या यों ही समझ लीजिए 'नारीत्व' था जागा !! नस भोर कह रहा था अयोध्याका वीरवर ! 'कर शीघ्र अपना धार तू क्यों होरहा कायर ? जिनपर हो भरोसा वे ला तू शक्तियां जाकर ! क्या होगा एक शक्तीसे मेरे शरीर पर?
खिजवाब देखना है तेरे बलका, वारका !
देना सुयोग है तुझे शक्ती - प्रहारका !! बल तीस ले अपना कि रणकी खाज मिटाते ! या अपने अहंकारको मिट्टी में मिलाले !! कन्याकी दुष्टताको मिष्टतामें दुबाले ! मर्यादसे बाहरके वचन बोलनेवाले !!"
वैरीदमनने क्रोध में भर शही उठाई ।
लमणको तभी-'मोहकीभावाज-सी भाई!! 'क्या' देखनेके लिए भाष उठाया । कन्याको झरोखेमें था बैठे हुए पाया !! माँखों में मुहब्बत थी कि भयभीत थी काया ! समय भी हुमा मुग्ध, धन्य ! प्रेमकी माया!!
करती थी यो संकेत वो पर्देकी मोटसे ! 'प्राणेश! प्रग इजिए शक्तीकी चोटसे ॥
गर श्रापका शक्ती हुश्रा कुछ भी अमगल | तो जिन्दगी हो जाएगी मेरी सभी निष्फल !!' लक्ष्मणने इशारे में कहा-'प्रेमको पागल ! घबरानो न, रखता हूं मैं भरपूर प्रायु-बन !!'
फिर देखा, प्रजापालने शक्तीको है ताना।
है साध रहा साधना से दिलका निशाना ॥ तब बोला लखन-व्यर्थ ही क्यों देर लगाता? क्या शक्ति-बाण तक नही मारना श्राता? कजम्के पैसेकी तरह करमें दबाता ! उसपर ये गर्व है कि-है वीरवसे नाता ॥'
फिर क्या था शक्ति खीचके भूपाल ने मारी।
'उफ!' करके उधर गिरने लगी राजदुलारी॥ लेकिन ये देख करकंदग रह गए सब जन । लक्ष्मण खड़ा है और बदरसूर है जीवन ।। जितपद्माने देखा तो वहा उसके मोद मन । पर, हो रहा था बाप का चेष्टा-विहीन-तन ॥
जिसपर घमण्ड था वो बात खोखली निकली।
लघमण ने दाएँ हाथमे शक्ती थी पर ली। वह कह रहा था 'एक ही शक्तीको मारकर ! श्रो, मृद अहंकारी ! बता क्यों रहा ठहर ? ला और भी, रखता है जो शक्तिका बल अगर ! वर्ना तू वीरकी जगह कहलाएगा कायर !!'
भूले नरेश था कि जो फर्मान निकाला!
कर सोचता कानूनको है मारने वाला !! वह श्राप ही अपमानकी ज्वालामे परे थे ! कुछ क्रोधका बन था कि जो पैरोंसे खड़े धं!! गो, शर्मदार थे न बल्कि चिकने घड़े थे। शक्तीको मारकर भी जो लबनेको खडे थे॥
फिर क्या था दूसरी भी शक्ती तानके छोडी !
सीमा जो न्यायकी थीयो अन्यायसे तोडी !! अचरज कि अबकी बार भी वह दृश्य ही दीखा। पर, उससे प्रजापालने कुछ पाठ न सीखा।" थामा था बॉएँ हाथमें वह सभी सीखा ! यह देखके अन्यायीका मन और भी चीता !!
लक्ष्मणने कहा-और भी तीख्ने प्रहार कर ! रह जाए नहीं दिसके कोई सना अन्दर !!'
भले ही