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भनेकान्त
[ वर्षे
नाही" वाले अर्थको मनमें मनन कर अपने उद्धार करने के ऐसा ही है" ऐसा माननेसे आज विश्व में कई सम्प्रदाय दृष्टिलिये प्रयत्नशील होत्रो सुकृत्य कगे, कर्तव्यपरायण बनो। गोचर होरहे हैं। वे मार्गके किसी सिरेपर खड़े हो. उसकी
__ "परोपदेशे पाण्डित्यम्" वाली उक्ति पर अमल न उत्पत्ति स्थानपर ध्यान न दे कहने लगे यही एक मार्ग है करते हुए वे स्त्रोद्धार पथके नेता बन यात्रार्थ चल दिये। लेकिन चौराहे पर खड़े होने वाले व्यक्तिने कहा भाई "चढ़ जा बेटा बांप पै भला करेगा राम" वाले प्रादेशको तुम्हारा भी कहना ठीक है लेकिन केवल वही म. है यह हेय समझ स्वयं उस स्थान पर पहुँच गये वहां होने वाले बात नहीं है। वस्तुजात कथंचित् नित्य है और कथं चत् सुखा देका अनुभवन किया इस प्रकार उसमें सफल हो, अनित्य है। वीर की यही दृष्टि रही और उन्होंने वस्तुस्वरूप भादर्श बन उन्होंने दूसरोको भी ऐपा बनने की प्रेरणा की। के विवेचन करने वाले इस सिद्वान्तको 'स्याद्वार' के नामसे इस प्रकार उन्होने मिळू कर दिया कि वैज्ञानिकका अनुभव सुशोभित किया। कि वस्तु अनेकान्तरमक, अनेकधर्माया भाविष्कार केवल उसकी ही सम्पत्ति न होकर विश्वकी रमक है अत: उसका वैसा स्वरूप वर्णन करना चाहिये। विभूति हुआ करती है।
अगर यह न हो सके तो एक धर्मको प्राधान्य तथा इतर उन्होंने अपना अनुभव दुनियाके सामने रखा। धर्मों को गौणता दे वस्तुस्वरूप बतलाओ, लेकिन तुम उन्होंने सिखलाया कि विद्वान् बनो, सदसद्विवेकशालिनी धर्मोका तिरस्कार या प्रभाव नहीं कर सकते । वे भी अपना सन्मतिके स्वाम। बनो, किसी भी कार्यको करनेके पहिले अस्तित्व रखते हैं। उमे बुद्धि की कसौटी पर कस लो, तर्कका तेजाब विश्व व्यवस्थाका सुन्दर समन्वय एवं उपकी उत्पत्ति डाल उसका खरा खोट,पन परख लो । जो युक्तियुक्त हो क्रमका वैज्ञानिक-निरूपण वीरवाणीमें ही पाया जाता है। उसे मानाओ और इस प्रकार अपना उद्धार करो। श्रान जिस बात को वैज्ञानिकोंने कई वर्षकी खोज के बाद
वे एक ऐसे अनभूत प्रयोगको सामने लाये जो अभिः प्रत्या कर दिखाया उसीको वीर जिनने अपने प्रात्मज्ञानके नव होते हुए मनोविज्ञान व प्राणिजगत के लिये अति प्राधारपर कई हजार वर्ष पहिले विवेचित कर दिया था। लाभकारी सिद्ध हुना। वह प्रयोग या सिद्धान्त था अहिपा वैज्ञानिकोंने रेडियो यंत्र द्वारा बतलाया "शब्द" एक ऐसी का और उसकी आधारशिला थी जियो और जीने दो" चीज है जिसे पकड़ा जा सकता है, रोका जा सकता है, जिस चीज़को हमने दिया या पैदा नही किया उसका अप- और फेंका भी जा सकता है। भगवान वीरने इसी बातको हरण करने का हमे कोई अधिकार नहीं है। अत: दूसरेको कई सदियों पहिले इस प्रकार कहा था-शब्द, प्राकाशका पीड़ा नह। देना चाहिये । यही अहिंसाकी परिभाषा थी। गुण न होते हुए, रूप, रस, गंध स्पर्श वाली एक पौद्गवीरने इसको भी अहिंसा बताते हुए एक कदम और बढ़ाया। लिक चीज़ है। जो पुद्गल होते हैं वे पकड़े भी सकते हैं, उन्होंने, दूसरे को न पीडते हुए भी अपनी प्रास्माके घात रोके भी जा सकते हैं और केके भी जा सकते हैं। करने, वैकारिक भावोंके विकास करनेको भी हिंसा कहा इसी प्रकार यह भी बताया कि इस विश्वका निर्माण और उसके त्याग करने को अहिंसा कहा।
करने वाला कोई नहीं है। संगोग और विभाग होने उन्होंने 'रज्यते त्यज्यमानेन" वाली उक्तिका साक्षात् से पदार्थजात पैदा होते हैं और नष्ट होते हैं श्राज बडेसे चित्र समोशरण-विभूति प्राप्त कर दिखला दिया। उन्होंने बढा वैज्ञानिक भी उपरिलिखित सिद्धान्तका कायल हो कहा कि यदि तुम चाहते हो कि जगतपूज्य हों तो निस्पृही उसका समर्थन ही करता है। होमो, वीतरागी बनो, विश्वये उदासीन रहो, उसे उपेक्षा वीरके और भी अनेक ऐसे सिद्धान्त हैं जो वैज्ञानिकों दृष्टिसे देखो। विश्व विभूति तुम्हारे पांव पलोटेगी। के लिये प्राविष्कारका क्षेत्र पैदा करदें। हमनका लेखके
चित्रके स्व-रवरूपमें स्थित होते हुए भी उसके वर्णन विस्तार भयसे वर्णन करने में असमर्थ हैं। करनेके या देखनेके कई पहलू, कई दृष्टियों हुआ करती हैं। फिर भी हम यहां एक बातके उल्लेख करनेका मोह उन दृष्टिकोणों से किसी पकको पकड रह कर "चित्र नहीं छोड़ेगे । आजसे कुछ वर्ष पहिलेके वैज्ञानिकोंका