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किरण :-१०]
श्री श्रवण भगवान महावीर और उनके सिद्धान्त
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कथन था कि वृक्ष पोधों वगैरहमें कोई चेतमा शक्ति नहीं बगाया जाय तो बदा भारी काम चल सकता और इस पाई जाती, वे जीव नहीं होते और न वे कुछ खाते पीते बातको 'जिनके रूप में व्यक्त किया, बे रोक टोक यहाँ वहां ही। लेकिन उस समय व उसके कई हजार वर्ष पहिलेसे फैलने वाली भाँपको रोक कर उससे गाडी खिंचवानेका वीरने प्रतिपादित कर दिया था कि न केवल वृक्ष वगैरहमें काम लिया। वीरने यह बात बहुत पहिले अनुभव में उतार किन्तु पृथ्वी, आप, तेज व वायुमें भी जान पाई जाती है। ली थी वे इनसे एक कदम और आगे बढ़ चुके थे। वैज्ञा
इस कथनको वे अपनी हठ वश स्वीकार नहीं कर सके। निकोंने अपने सिद्धान्तको केवल भौतिक पदार्थों पर प्राज़'आज आर्यावर्त्तके एक वैज्ञानिक (सर जगदीशचन्द्र वसु) माया था। वीरने इससे प्रास्मोद्धार किया। इन्द्रिय व मन
ने सिद्ध कर दिया कि उनमें-वृक्ष पौधों में चेतना पाई जाती की शक्तिको जो विषयों में यहाँ वहां नष्ट हो रही थी उसको है, सुख दुःखका अनुभवन पाया जाता है!
केद्रित कर प्रारमदर्शन. स्वावलोकनकी ओर लगा दिया हम, इस प्रकार कह सकते हैं कि वीर वैज्ञानिकोंके और इस प्रकार गाडीको मुक्ति स्थल पर रोका । इस प्रकार प्राचार्योंके भी श्रादि शिक्षक थे उन्होंने वैज्ञानिकों के लिये यह संक्षेपमें वीरके कुछ विचारोंके विवेचनका प्रयास एक विस्तृत कार्य क्षेत्र पैदा कर दिया और इस प्रकार किया गया है। वीरके समस्त सिद्धान्तोंके वर्णन करनेका विज्ञान के विकासमें बड़े प्रबल सहायक हुए।
प्रयास तो वैसा ही उपहासनीय होगा जैसा नभस्थित चन्द्र वैज्ञानिकोंने बतलाया कि एक बेसिलसिले में फैली को पकड़ने के लिये बाल हठ । फिर भी अपनी शक्त्यनुसार हुई चीजको सिलसिलेसे संगठित कर उसको किसी काममें कुछ लिखनेका प्रयत्न किया है।
श्री श्रमण भगवान महावीर और उनके सिद्धान्त
(ले०-उपाध्याय मुनि श्री आत्मारामजी पंजाबी )
प्रिय सुज्ञे पुरुषो!
हम सूत्रका यह भाव है कि दो स्थानोंमे संयुक्त अनआत्म-विकासके लिए उन असाधनों की आवश्यकता गार अनादि अनन्त चार गतिरूप संसाररूपी कान्तारमे पार होती है जिनके कारणसे श्रास्मा अात्म-विकाम कर सकता होजाता है जैसे कि विद्यासे और चारित्रमे । इम सूत्रमे यह है। श्रास्तिकवादियोंका मुख्य सिद्धान्त अात्मविकास कर सिद्ध किया गया है कि कोई भी प्रात्मा जाति वा कुलसे निर्वाण-पद प्राप्त करना ही है । जब श्री भगवान महावीर पार नहीं हो सकता । मात्र विद्या और चारित्रकी श्रात्मस्वामीने जानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और विकास के लिए अत्यन्त आवश्यकता है । अब प्रश्न यह अन्तराय हन चार घातिए कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान उपस्थित होता है कि उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वे अध्ययनकी
और केवलदर्शन प्राप्त किया तब जनताके सन्मुख इस द्वितीय गाथामें श्री भगवानने मोक्षके चार मार्ग कथन किए सिद्धान्तको रखा कि प्रत्येक प्राणी विद्या और चारित्रके हैं जैसे कि :द्वारा आत्मविकास कर संसारचक्रसे छूटकर निर्वाणपद प्राप्त नाणं च दमणं चेव चरित्तं च तवो तहा। कर सकता है जैसे कि
एस मग्गो त्ति पत्तो जिणेहि वरदंसिहि निगा _ 'दोहि ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं प्रणव. अर्थात्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों यागं दीहमद चाउरंतसारकंतार वीतिवतेज्जा तं जहा- मोक्षके मार्ग है। किन्तु तत्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके प्रथम विजाए चेव चरणेण चेव ।
सूत्र में यह कथन है