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अनेकान्त
वर्ष ७
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ मणि दुद्धं पाणं तेल्ल फाणियं वसं ॥ इस सूत्रसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही
-प्रज्ञापनसूत्र पद १५ उद्देश १ सूत्र १६७ मोक्षके मार्ग बतलाए गए हैं ।
यह भाव है कि श्रीभगवानसे गौतमस्वामीजी पूछते हैं कि इस सूत्रकी सृष्टि उत्तराध्यतन सूत्रके २८ वें अध्ययन हे भगवन् ! कोई व्यक्ति दर्पण (सीसा) को देखता हमा की ३० वी गाथाके श्राधारपर हुई है कि:-
क्या वह अपने शरीरको देखता है, दर्पण को देखता है नादं सणिस्सनाणं नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। अथवा शरीर के प्रतिबिम्बको देखता है ? इस प्रश्न के उत्तर
णिस्स णस्थि मक्खिो नत्थि अमक्खिस्सनिव्वाणं॥ म श्री भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! दर्पणको देखने
अर्थात-विना दर्शनके ज्ञान नही, ज्ञानके विना वाला व्यक्ति अपने शरीरको दर्पण में नही देखता क्योकि चरणगुग्ण उत्पन्न नहीं हो सकता । यह सर्वकथन नयवादकी उसका शरीर उसके आत्माके साथ मन्बन्धित है न तु अपेक्षासे ही कथन किया गया है दर्शनका समवतार ज्ञान दपए मे । केवल दपणमे शरीर के प्रतिबिन्बको देखता है, से और तपका समवतार चारित्रमे हो जाता है, तब कारण कि प्रकाशनीय और निर्मल पदाथों में छाया के मामान्यरूपसे अात्मविकासके मुख्य कारण विद्या और पद्गल प्रतिबिम्बित हो जाते हैं. क्योंकि पदगलक सामग्रीचारित्र ही सिद्ध हये। श्री भगवानने विद्या के द्वारा प्र.येक वशात् नाना प्रकारसे परिणमन होना स्वाभाविक सिद्ध है, दव्य गण और पर्यायके जाननेका संकेत किया है और केवल विशेष इतना ही है कि प्रकाश और निर्मल पदार्थों चारित्रके द्वारा प्राचीन कोका क्षय और नूतन कोंके मे छायाके पुद्गल उन पदार्थोमे संक्रमणकर अपने शरीर शासकका निरोध करना बतलाया है । जैसे कि-धर्म, के वर्णरूपम अथवा अपने शरीर के आकारपनेमे परिणत हो श्रधर्म, अाकाश, काल, पुद्गल और जीव ये षट् द्रव्यमय जाते हैं । सर्वइन्द्रिया स्थूल पदार्थों को ही अनभव कर जगत । इन द्रव्योके गुण और पर्यायोको सम्यकतया जान सकती हैं न कि सूक्ष्म परमाणुअोंको । यद्यपि अन्धकारमे कर फिर हेय ज्ञेय और उपादेयके स्वरूपको अवगत कर भी छायाके. श्राकारमे परिणत हुए पुद्गल अवश्य होते हैं श्रात्म-विकास के लिए अनुकरणीय शिक्षाको धारण तथापि विना प्रकाशके इन्द्रियों उनका विभाग नहीं कर करना चाहिए । पद्गन-द्रव्यका वर्णन करते हुवे श्री सकती। इस सूत्रकी वृत्तिके कर्ता मलयगिरिसूरि वृत्ति मे भगवानने कथन किया है कि
इस प्रकारसे लिखते हैं जैसे किसबंधयार उज्जोओ पभा छायातवो इवा। भगवान्नाह--आदर्श तावत् प्रक्षेत एव तस्य स्फुटवरुणरसगन्धकासा पुग्गलाणं तु लक्खरणं ॥१२॥ रूपस्य यथावस्थितनया तेनोपलम्भात् , अात्मान-श्रात्मएगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य।
शरीरं पनन पश्यति, तस्य तत्राभावात् , स्वशरीरं हि स्वामंजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।१३। त्मनि व्यवस्थितं नादर्श ततः कथमात्मशगरं च तत्र पश्ये
अर्थात्-शब्द, अन्धकार, उद्योत प्रभा, छाया, दिति ? प्रतिभागं स्वशरीरस्य प्रतिबिम्ब पश्यति, श्रथ किपातप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ये सब पुद्गल द्रव्यके मात्मक प्रतिबिम्बं ? उच्यते, छायापद्गलात्मकं, तथाहि लक्षण है । एकत्व होना, पृथक् होना, संख्याबद्ध होना, सर्वमौ ग्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मकं रश्मिसंस्थानयुक्त होना और संयोग तथा विभाग होना ये सब वच्च रश्मय इति छाया पुद्गला: व्यवहियन्ते च छाया: पर्यापक लक्षण हैं, इनका सविस्तर स्वरूप जैन श्रागमोंमे पुद्गला: प्रत्यक्षत एव सिद्धा, सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनः छाया, बड़े ही सुन्दर प्रकारसे किया गया है । उदाहरण के लिए अध्यक्षतः प्रतिप्राणिप्रतीत:, अन्यच्च यदि स्थूलवस्तु जैसे छाया एक पुद्गल द्रव्यका ही पर्याय है इसके अाधार व्यवहिततया दूरस्थितयता वा नादर्शादिष्ववगाढ रश्मि पर वर्तमान काल में फोटोकी सृष्टि निर्माण हुई है। जैसे कि भवति ततो न तत्र तद्दश्यते तस्मादवसीयते सन्ति छाया
अहायं पेहमाणो मणूसे अहायं पेहति नो अप्पाणं पुद्गला इति, ते च छायापुद्गलास्तत्तत् सामग्रीवशाद्वि च. पेहति पलिभागं पेहति एवं एतेणं अभिलवेणं असिं परिणमनस्वभावास्तथाहि-ते छाया पुद्गलादिवा वस्तु