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स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
[सम्पादकीय ]
अनेकान्तकी पिछली किरण (नं. ३-४ ) में सुहृदर कर्ताका नाम सूचित किया है और वन लाया है कि वे म. पं. नाथूरामजी प्रेमीका एक लेख प्रकाशित हुया है जिसका म. सतीशचन्द्र विद्याभूषण के अनुसार ई. सन् २००० के शीर्षक है 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी ममन्तभद्र ही लगभग हुए हैं। हो सकता है कि ये 'विषमपद-तापर्यहैं ?' इस लेख में रनकरण्डश्रावकाचार' पर स्वामी वृत्ति' के कर्ता समन्तभद्र ही प्रेमीजी की दृटमे उन समन्तभद्र के कर्तृत्वकी आशंका करते हुए प्रेमीजीने वादि- दुसरे समन्तभट्टके रूपमें स्थित हों जिनके विषयमे गन्नराजसूरिके पार्श्वनाथचरितसे 'स्वामिनश्चरितं तस्य', करण्डके कर्ता होनेकी उपर्युक्त कल्पना की गई है। परन्न 'अचिन्त्यमहिमादेवः', 'त्यागी म एव योगीन्द्रो', इन एक तो इन्हे योगीन्द्र सिद्ध नहीं किया गया, जिसम उक्त तीन पद्योंको इसी क्रमसे एक साथ उद्धृत किया है और पदमे प्रयुक योगीन्द्र' पदके साथ इनकी संगति कुछ बतलाया है कि इसमें क्रमश: स्वामी, देव और योगीन्द्र ठीक बैट सकती। दृपरे, इन विषमपद-तात्पर्य वृत्तिके कर्माइन तीन श्राचार्योकी स्तुति उनके अलग अलग ग्रन्धों विषयमे प्रेमीजी स्वयं ही धागे लिखते हैं(देवागम, जैनेन्द्र, रत्नकरण्डक) के संकेत सहित की गई है। "नामतो इनका भी ममन्तभद्र था. परन्तु म्वामी 'स्वामी' तथा 'योगीन्द्र' नाम न होकर उपपद हैं और 'देव' समन्तभद्र से अपने को पृथक् बतलाने के लिए इन्होने श्राप जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दीके नामका एक देश है। वो 'लघु' विशेषण सहित लिखा है।" स्वामी पद देवागमके कर्ता स्वामी समन्तभद्रका वाचक है अत: ये लघु समन्तभद्र ही यदि रस्नकरण्डके कर्ता
और 'योगीन्द्र' पद, बीचमें देवनन्दीका नाम पद जानेये, होते तो अपनी वृनिके अनुसार नागडमे भी म्बामी स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे ही श्राचार्यका वाचक समन्तभद्रये अपना पृथक बोध कराने के ल्दियं अपनेयो है और इस लिये वे दूसरे भाचार्य ही 'ग्नकरगड के 'लघुसमन्तभद्र के रूपमे ही उल्लेलित करते. परन्तु रन. कर्ता होने चाहिये । परन्तु योगीन्द्र' पदके वाच्य वे दुसरे करगड़के पद्या, गद्या'मक मधियो और टीका तकमे कही भी श्राचार्य कौन हैं यह प्राने बगलाया नहीं। हा, इतनी ग्रन्थकं कर्तृवरूपमे 'लवुममन्तभद्र' का नामोल्लेख नहीं है, कल्पना जरूर की है कि-"असली नाम रत्नकरण्डके कर्ता तब उसके विषय में लघुममन्तभद कृत होनेकी कल्पना का भी समन्तामनी सकना है, जो स्वामी समन्तभदमे कैसे की जा सकनी है ? नहीं की जा सकती --ग्यासकर पृथक शायद दुसरे ही ममन्तभद्र हों। यह कल्पना भी स्वामिना अापकी ( हो सकता है. 'शायद' और 'हो' जैसे शब्दोंके
ममी-
पिटल प्रयोगको लिये रहने और दूसरे समन्तभद्रका कोई स्पष्टी.
दिन लघुममन्तभद्र के अलावा चिकम०, गेममी पे म., करा न होनेसे) पन्देहामक है, और इस लिये यह ।
अभिनव स०, भट्टारक स० और गृहस्थ म नाम के रोच कहना चाहिये कि योगीन्द्र' पदके वाच्यम्पमें श्राप दसरे मालटोको और खोजी भी से ग्राम किसी प्राचार्यका नाम अभी तक निर्धारित नही कर सके
कोई २० वर्ष पहले मा. दि. जैन ग्रन्यमालाम प्रकाशन हैं। ऐसी हालत में आपकी श्राशका और कल्पना कुछ बल
रत्नकरण्ड-श्रावकाचारको अपनी प्रस्तावनाम प्रकट किया वती मालूम नहीं होती।
था और उसके द्वारा यह स्पष्ट किया था कि ममयादि की लेखके अन्नमें "समन्तभद्र नामके धारण करने वाले दृष्टिम इन छदो दृमरे समन्तभद्रोमसे कोई भी रत्नकरण्ड विद्वान और भी अनेक हो गये हैं" ऐसा लिख कर उदा- का का नहीं हो मकता है। (देग्यो, उक्त प्रस्तावनाका हरणके तौर पर भ्रष्टसहस्रीकी विषमपद-तात्पर्य वृत्तिके 'ग्रन्थपर सन्देद' प्रकरण पृ० ५ से।)