________________
किरण ५, ६]
स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
ऐसी हालतमें जब कि रत्नकरण्डकी प्रत्येक सन्धि समन्त- रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रभद्रके नामके साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ है, जैसा कि परिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष नमसनातन जैनग्रन्थमालाके उस प्रथम गुछ कसे भी प्रकट है स्कुर्वन्नाह-" जिसे सन् १६०५ में प्रमीजीके गुरुवर पं. पन्नालाबजी "इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिबाकलीवालने एक प्राचीन गुटके परसे बम्बई के निर्णयसागर विरचितोपासकाध्ययन टीकायां प्रथमः परिच्छेदः॥शा" प्रेममे मुद्रित कराया था और जिमकी एक सन्धिका नमूना प्रेमीजीने अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक इस प्रकार है--
ग्रन्थ (पृ. ३३६) में कुछ उल्लेखोंके आधारपर यह "इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्ड- स्वीकार किया है कि प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमारवंशी नाम्नि आसकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमः राजा भोनदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंह नरेशके परिच्छेदः।। १॥”
राज्यकालमें हुए हैं और उनका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और इस लिये लेखके शुरूमें प्रेमीजीका यह लिखना भोजदेवके राज्यकालकी रचना है। जब कि वादिराजमूरिका कि 'ग्रन्थमे कहीं भी कर्ताका नाम नहीं दिया है। कुछ पार्श्वनाथ चरित जयसिंहके राज्य में बन कर शकसंवत् १४७ संगत मालूम नहीं देता। यदि पद्यभागमै नामके देनेको ही (वि० सं० १०८२) मे समाप्त हुया है। इसमे प्रभाचन्द्रा ग्रन्थकारका नाम देना कहा जायगा तब तो समन्तभद्रका चार्य वादिराजके प्रायः| समकालीन डी नही बल्कि कुछ 'देवागम' भी उनके नामसे शून्य ही ठहरेगा, क्यों कि उस पूर्ववर्ती भी जान पड़ते हैं। और जब प्रेमीजीकी मान्यता के भी किसी पद्यम समन्तभद्रका नाम नहीं है।
नुसार उन्हीने निकरण्डकी वह टीका लिखी है जिसमें तीसरे, लघुसमन्तभद्ने अपनी उस विषमपदतापर्य- साफ तौर पर रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकीकति प्रनि. वृत्तिमै प्रभाचन्द्र के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' का उल्लेख पादित किया गया है तब प्रेमीजीके लिये यह कल्पना करने किया है, इससे लघुसमन्तभद्र प्रभाचन्द्र के बादके विद्वान. की कोई माकुल वजह नहीं रहती कि वादिराजसूरि देवारम ठहरते हैं। और स्वय प्रेमीजीके कथनानुसार इन प्रभाचन्दा- और रस्नकरण्डको दो अलग अलग प्राचार्योंकी कृति चार्यने ही रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी वह सस्कृत टीका लिखी मानते थे और उनके समक्ष वैमा माननेका कोई प्रमाण या है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें उन्हींके मत्रित्वमें मुद्रित हो जनश्रुनि रही होगी। चुकी है । इस टीकाके मन्धिवाक्योंमें ही नही किन्तु मूल
यहाँ पर मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि ग्रन्थकी टीकाका प्रारम्भ करते हुए उसके धादिम प्रस्तावना प्रेमीजीने वादिगजके स्पष्ट निर्देशके बिना ही देवागम और वाक्यमे भी प्रभाचन्द्राचायने इस रग्नकरण्डको स्वामी
रत्नकरण्डको भिन्न भिन्न कर्तृक मानकर यह कल्पना ती समन्तभद्रकी कृति सूचित किया है। वह प्रस्तावना-वाक्य कर डाली कि वादिराजके सामने दोनों ग्रन्थोंके भिन्नकर्तृव और नमूनेके तौर एक सन्धिवाक्य इस प्रकार है-- का कोई प्रमाण या जनश्रुति रही होगी, उनके कथनपर ___ "श्रीममन्तभद्रम्वामी रत्नानां ग्क्षणोपायभूतरत्न- एकाएक अविश्वास नहीं किया जा सकता, परन्तु १३ वीं करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिग्नानां पालनापायभतं शताब्दीके प्राचार्य कल्प पं. पाशाधर जैसे महान विद्वान् 'अथवा नच्छक्तिममर्थनं प्रमेयकमलमातेण्ड द्वितीय
- ने जब अपने 'धर्मामृत' ग्रन्थमें जगह जगहपर सनकरण्ड
को स्वामी समन्तभद्रकी कति और एक पागम ग्रन्थ प्रतिपरिच्छेदे प्रत्यक्षतरभेदादिल्या व्य ख्यानावमरे प्रपञ्चत: प्रोक्तमत्राचगनाध्यम।"
पादित किया है तब उसके सम्बन्धमें यह कल्पना नहीं की "तथा च प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीय-परिच्छेदे इतरे
कि पं० श्राशावरजीके सामने भी वैसा प्रतिपादन करनेका नराभावप्रवट्टके प्रतिपादितं....।
कोई प्रबल प्रमाण अथवा जनश्रुतिका अाधार रहा होगा !! देखो, 'जेनमादित्य और इतिहास' ग्रन्थम श्रीचन्द्र और क्या श्राशाधरजोको एकाएक अविश्वासकापात्र समझ लिया प्रभाचन्द्र' नामक लेख, पृष्ठ ३३६ ।
सिहे पाति जयादिके वमुमनी'