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अनेकान्त
गया जो उनके कनकी जाँच के लिये तो पूर्व परम्पराठी खोजको प्रोसेजन दिया गया परन्तु वादिराजके तथाकथित कपनकी के लिये कोई संकेत तक भी नहीं किया गया ? नही मालूम इसमें क्या कुछ रहस्य है ! श्राशाधरजीके सामने तो बहुत बड़ी परम्परा आचार्य प्रभाचन्द्रकी रही है जो अपनी टीका द्वारा रत्नकण्डको स्वामी समन्तभद्रका प्रतिपादित करते थे और जिनके वाक्योंको आशावरजं ने अपने धर्माती टीका अढाके साथ उत किया है और जिनके उद्धरणका एक नमूना इस प्रकार है
"यथास्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुदेवपादा रत्नकरगढ़ टीकायां 'चतुरावर्तत्रितय' इत्यादि सूत्रे 'द्विनिप' इत्यस्य व्याख्याने 'देववदनां कुर्वता हि प्रारम्भ समाप्तौ चोपविश्य प्राणामः कर्तव्यः" इति ।
- अनगारधर्मामृत प० नं० ६३ की टीका पं० श्राशाधरजीके पहले १२ वी शताब्दीमें श्रीपद्मप्रभमनचारिदेव भी हो गये हैं, जो स्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी वृति मानते थे, इसी नियमसारको टीकामे उन्होंने 'तथा चोक्त' श्रीसमन्तभद्रस्वामित्रिः ' इस वाक्य के साथ रत्नकरण्डका 'अन्यूममनतिरिक्त' नामका पद्य किया है।
इस तरह पं० श्राशावरजीमे पूर्वकी १२ वी और 15वीं शताब्दी में भी वादिराजसूरके समय अथवा उसमे भी कुछ पहले तक, रत्नकरण्डके स्वामी समन्तभद्रकृत होनेकी मान्यताका पता चलता है । खोजने पर और भी प्रमाण मिल सकते हैं। और वैसे रस्नकरण्डके ग्रस्तिस्वका पता तो उसके क्योंके उद्धरणों तथा अनुसरण के द्वारा विक्रमकी aठी (ईसाकी ५ वी) शताब्दी तक पाया जाता है और इस लिये उसके बादके किसी विद्वान द्वारा उस के कर्तृस्वकी कल्पना नहीं की जा सकती ।
[ वर्ष ७
यहाँ पर पाठकोंको इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्राजमे कोई २० वर्ष पहले मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' नामका एक इतिहास ग्रन्थ लिखा था, जो प्रेमीगीको समर्पित किया गया था और माणिकचन्द्र जैनमाल रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना के साथ भी प्रकाशित हुआ था। उसमें पार्श्वनायचरितकं उक 'स्वामिनश्ररित' और 'त्यागी स एव गोगीन्द्रो' इन दोनों को एक साथ रख कर मैंने बतलाया था कि इनमे वादिराजसूरिने स्वामी समन्तभद्रकी स्तुति उनके 'देवागम' और 'रत्नकरण्डक - नामक दो प्रवचनों (ग्रन्थों ) के उल्लेख पूर्वक की है। साथ ही, एक फुटनोट-द्वारा यह सूचित किया था कि इन दोनों पोके मध्य मे "अचिन्त्य महिमा देवः सोऽभिबन्यो दिनैषिणा शब्दाश्र येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः " यह पद्य प्रकाशित प्रतिमे पाया जाता है, जो मेरी राय में उक्त दोनों पयोंक बादका मालूम होता है और जिसका 'देवः' पद संभवतः देवनन्दी ( पूज्यपाद ) का वाचक जान पड़ता है । और लिखा था कि "यदि यह तीसरा पथ सचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियों में इन दोनों पयोंके मध्य में ही पाया जाता है और मध्यका ही पद्य है तो यह कहना होगा कि वादराजने समन्तभद्रकी अपना हित चाहने वालोंके द्वारा वन्दनीय और श्रचिन्त्यमहिमा वाला देव भी प्रतिपादन किया है। साथ ही यह लिख कर कि उनके द्वारा शब्द भजे सिद्ध होते हैं. उनके समन्तभ) किमी व्याकरण ग्रंथका उल्लेख किया है ।" इस सूचना और सम्मति के अनुसार विहान लोग बराबर यह मनते रहे हैं कि म एव चन्द्रो येनायाः अर्धिने भव्य सार्थादिष्टो रत्नकरण्डकः " इस पथके द्वारा वादिराजसूरिने पूर्वके 'स्वामिनश्वरितं' पथमें उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रको ही कर्ता सूचित किया है. चुनाँचे प्रोफेसर हीरालालजी एम० ए० भी सन् १६४२ मे परागमकी चौथी जिल्दकी प्रस्तावना लिखते हुए उसके १२ वे पृष्टपर लिखते हैं-
उदाहरण के तौर पर रत्नकरण्डका 'मनुल्लं पद्म न्यायावतार उद्धृत मिलता है, जो ई० की ७ वी शताब्दि की रचना प्रमाणित हुई है। और रत्नकरण्डके कितने दी पदयापीका अनुसरण 'सर्वार्थसिद्धि' (० की ५ वी श० ) में पाया जाता है और जिनका स्पष्टीकरण 'सर्वार्थसिद्धिर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमे किया जा चुका है (देखो, अनेकान्त वर्ष ५०१०-११ )
"श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत स्नकरण्ड श्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरिनं 'अक्षयसुखावह' और प्रभाचन्द्र 'अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला सूर्य' लिखा है"