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अनेकान्त
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सितम्बरकी संध्याके समय ७७ वर्ष की अवस्थामें उनकी बा. पन्नालालजी अग्रवाल देहली मंत्री वरसेवामन्दिरने यह जीवन-लीला समाप्त होगई और इस तरह जैनजाति उन्हें लेखक लिये प्रेरणा की थी तो उन्होंने एक लेख उन के एक महान सवक 'सूर्य' का सदाके लिये अस्त होगया!!! के पास भेजा था, जो संभवत: उनका अन्तिम लेखगा,
भले ही आज बाबूजी अपने भौतिक शरीरमे नही हैं, उनके विचारोंका प्रतीक था और जिससे जाना जाता है कि परन्नु अपने साहित्य-शरीरमे वे आज भी जीवित समाज के प्रति उनकी लगन और शुभ भावना बराबर बनी विद्यमान हैं और जब तक उनका यह साहित्य रहेगा वे रही है। मालूम नही वह लेख अब किसके पास है, उसको अमर रहेंगे तथा लोकको प्रकाश देते रहेंगे।
प्रकाशित करना चाहिये। अपने इस पिछले चार वर्षक जीवनमे यद्यपि उनमे इममें सन्देश नहीं कि बाबू सूरजभानजी समाजके उपर समाजकी कोई खाम मेया नहीं बन सकी । एक दो बार अपनी संवाओं तथा उपकारोंका एक बहुत बड़ा ऋण छोड़ लेखोंके लिये जो उन्हें प्रेरणा की, तो उन्होने यही कहा कि गये हैं। और इस लिये उससे उऋण होनेके लिये समाज 'काम ठियेपर बैठकर ही होता है, यहाँ मेरे पास कोई का कर्तव्य है कि वह उनका कोई अच्छा स्मारक खडा करे साधन नही' फिर भी वे समाजके कामोंमे कुछ न कुछ और उनके उमसाहित्यका संरक्षण एव एकत्र प्रकाशन करें । भाग बराबर लेते रहे हैं। एक बार देवबन्दम वीरशामन जो समाजके उत्थान और सको नवजीवन प्रदान करने में जयन्तीके उत्सव में परमावा पधारे थे । और पिछले कल- सहायक है।
दुःखितहृदय साम होने वाले वीर-शासन-महोत्सबके लिये जब
जुगलकिशोर मुख्तार
बाबू सूरजभानजीके वियोगमें शोकसभा तार्गस्त्र २८ मितम्बरको वीग्मेवामन्दिर सरमावामे बाबु नानक चन्दजी जैन रिटायई श्रोवरसियरके मभापतित्वम जैन समाज के पगने कर्मट नेता यौर मादित्यसेवी बाब माजभान जी वकीलके १६ मितम्बरको कलकत्ताम हुए वियोगम शोक.मभा की गई, जिसमे श्रीमान पं. जुगलकिशोर जी, पं. परमानन्दजी शास्त्री, लाला महाराजामादजी, सभापतिजी और मैंने बाब माहबके कार्यो और जीवनीपर प्रकाश डाला तथा हार्दिक शोक प्रकट करते हुए श्रद्वाजनियाँ अर्पण की। और निम्न शोक-प्रस्ताव पास करने के अनन्तर मबने पांच मिनट खड़े होकर स्वर्गीय श्रात्माके लिये शान्तिकी भावना की।
-दरबारीलाल जैन, कोठिया।
शोक-प्राताव जैनसमाजके वृद्ध साहित्यमेवी और वर्तमान प्रवृत्तियों के अग्रदूत एवं निर्भीक कर्मठनेता बाबू सूरजभानजीका ७७ वर्षकी अवस्थामे जो कलकत्तामें १६ सितम्बर सन् १९४५को वियोग होगया है उससे जैन समाजकी भारी क्षति हुई है, जिसकी पूर्ति होना बहुत ही कठिन है। उन्होंने जैनसमाज और जैन साहित्यके लिये चिरस्मरणीय संवाएँ की हैं। जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनकी प्रवृत्तिका श्रेय तो खास रहीको है। खेद है कि जैनसमाज बाबू साहबकी सेवाओंके उपलक्ष में मम्मानादिके रूपमें उनके सामने कोई खास कार्य नहीं कर पाया और उमके दिली अरमान दिल में ही रह गये ! अब समाजको उनकी महान् सेवाओंको लक्ष्य में रखते हुए उनका कोई स्मारक अवश्य ही बनाना चाहिये। उनके वियोगसे समाजको जो ख हुआ है वह अवर्णनीय है। आजकी यह वीरसेवान्दिरके विद्वानों और स्थानीय जैनसमाजकी सभा के वियोगपर हार्दिक शोक व्यक्त करती है और स्वर्गीय श्रात्माके लिये परलोकमें शान्ति-सुखकी कामना ती हुई उनके पुत्रों तथा कुटुम्बी जनों के प्रति अपनी दिली समवेदना प्रकट करती है।