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किरण ११:१०]
जैन जातिका सूर्य अस्त !
भावनानोको पूरा किया था । आप उसमें बराबर लेख तथा लेखोंको लेकर जब समाजने उनका पुन बहिष्कार लिखा करते थे और अपने सत्पगमों द्वारा मेरी महायता किया, और इस तरह उनके विचारोंको दबाने कुचलनेका किया करते थ । उस समय 'आर्यमतकी लीला' नाममे जो कुरिमत मार्ग अख्तियार किया तथा उनके सारे किये कराये एक लम्बी लेखमाला प्रकाशित हुई थी उसके मूल लेखक पर पानी फेरकर कृतघ्नताका भाव प्रदर्शित किया, तब उन्हे श्राप ही थे।
उसपर बड़ा खेद हुया और उनके चित्तको भारी श्राघात समाजसेवाके भावोमे प्रेरित होकर ही आपने मेरे
पहुँचा, जिस वे अपनी वृद्धावस्थाके कारण सहन नहीं कर मुख्तारकारी छोड़ने के साथ-एक ही दिन १२ फरवरी सन्
पके । और इस लिये कुछ समयके बाद सामाजिक प्रवृत्तियों १९१४ को-खूब चलती हुई वकालतको छोडा था। श्रीर
में ऊबार अथवा उद्विग्न होकर उन्होंने विरक्ति धारण तब प्राप सामाजिक उन्धानके कार्यों में और भी तत्परताके
करली। उनकी यह विरकि, उन्हीके शब्दों में बारह वर्ष तक साथ योग देने लगे थे-जगह जगह जाना श्राना, मभा.
म्धिर रही। इस अर्मे में, वे कहते थे, उन्होंने कुछ नहीं पोसाइटियोंमें भाग लेना, लेख लिखना, पत्रव्यवहार करना
लिखा, लेखनीको एकदम विश्राम दे दिया और पुत्रोंके पास आदि कार्य आपके बढ़ गये थे। कुछ समयके लिये घरपर
रहकर उनके बच्चोंस ही चित्त को बहलाने रहे। कन्यापाठशाला ही श्राप ले बैठे थे, जिसकी एक कन्या
अाखिर उनकी यह विरक्ति तब भंग हुई जब बगातारके मेरे वर्तमानमें प्रसिद्ध कार्यकत्री लेखवती जैन है । खतौलीक
अनुरोध और श्राग्रहपर वे वीरसेवामन्दिरमें मा गये। यहां दस्सा बीमा केसमें विद्वद्वर पं. गोपालदासजीका सहयोग
श्राते ही उनकी लेखनी फिर चल पड़ी, उनमें जवानीका. प्राप्त कर लेना और दस्मौके पक्षमे उनकी गवाही दिला
मा जोश आगया--जिम वे 'वामी कदीमें फिरसे उबाल देना भी प्रापका ही काम था। पंगोपालदासजीक बाई काट
श्राना' कहा करतेध---और उन्होंने लेख ही लेख लिख अथवा बहिष्कारको विफल करनेमें भी प्रापका प्रधान हाथ रहा है।
डाले । इन लेखोंमे अनकान्तके दूसरे तथा तीसरे वर्षकी ___ ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुरमे पहुँचकर अापने फाहले भरी हुई हैं और उनमें अनेकान्त के पाठकों को बहुत उसकी भारी सेवाएँ की है, और जब यह देखा कि उममे लाभ पहुंचा है । इम दो-ढाई वर्ष के अर्से में उन्होंने अनेकुछ ऐसे व्यक्यिोंका प्राबल्य होगया है जो समाज के हिता- कान्तको ही लेख नहीं दिये बल्कि दुसरे जैन तथा अजैन हितपर ध्यान न रखकर अपनी ही चलाना चाहते हैं और पत्रीको भी कितने ही लेख दिये हैं। इसके अलावा, यहो इनकी सुननेको तय्यार नहीं, तब आपने उसे छोड दिया रहने उन्होंने वीरसेवामन्दिरकी कन्यापाठशालामें कन्याओं
और दूसरे रूपमे समाजकी सेवा करने लगे । वे अपने को शिक्षा भी दी है, मन्दिर में लोगोंक प्राग्रहपर उन्हें दो विचारके धनी थे. धुनके पक्के थे और अपने विचारोका दो घटे रोजाना शास्त्र भी सुनाया है और प्राश्रमके विद्वानों खून करके कुछ भी करना नहीं चाहते थे।
म चर्चा-यामि जब जुट जाते थे तो उन्हें छका देते थे। सत्योदय, जैनहितैषी और जैनजगत यादि पत्रीमे वे श्रापकी वाणमि रम था, माधुयं था, योज था और तेज था। बराबर लिखते रहे हैं और अपने विचारोको उनक द्वारा कुछ कोटुम्बिक परिस्थितियोंके कारण भापको लगभग व्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे और 'ज्ञान ढाई वर्ष के बाद वीरवान्दिरको छाना पका- पापके सूर्योदय' श्रादि पचासों पुस्तके लिख डाली । लेखनकलाम भाई बा० चेतनदामजी वकीलको फालिज (लकवा) पर वे बड़े सिद्धहस्त थे, जल्दी लिख लेते थे और जो कुछ गया था, उनकी तीमारदारीके लिये भापको उनके पास लिखते थे युक्ति पुरस्सर लिखते थे तथा समाजके हितकी (देवबन्द) जाना पड़ा और फिर चि. सुग्यवन्तरायकी परिभावनासे प्रेरित होकर ही लिखते थे--भले ही उममें स्थितियोकं वश उसके पास देहली केट, देहरादून तथा उनसे कुछ मूले तथा ग़लतिय हो गई हो. परन्तु इलाहाबाद रहना पड़ा । तदनन्तर चि. कुलवन्तराय उमे उनका उद्देश्य बुरा नहीं था।
डालमियानगर ले गया, जहां उनकी बीमारीका कु: प्रादिपुराण-समीक्षादि जैसी कुछ मालोचनात्मक पुस्तकों समाचार सुन पहा, और अन्तको कलकत्तेमें जाकर ।