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किरण ५-६]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और आममीमामाका कर्तृत्व
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मतकी पुष्टिमें अधिकमे अधिक प्रबल नाके माथ प्रस्तुत करना जाना है कि वे प्राप्तमामासा और रनकरण्डको दो मित चाहिए था। पर उन्होंने वादिराजके रत्नकरण्डक सम्बन्धी प्राचार्योकी कृतियां मानते हैं । यह सुस्पष्ट ऐतिहासिक उल्लेखका तो कथन किया, किन्तु उन्हींके द्वारा मुग्टतार प्रमाण क्यों दबाया गया है यह समझ नहीं आता ? मा० के अवतरणानुमार ठीक उसीसे पूर्वके श्लोकमे उल्लि. वादिराजसूरि द्वारा डाले हुए इस प्रकाशकी रोशनी में अब खित प्राप्तमीमांसाकी बातको वे सर्वथा छिपा गये । इसका यदि हम इनकरण्ड और सर्वार्थसिद्धि के उम समान अंशोपर कारण हमें तब समझमें आया जब हमने वादिराजकृत दृष्टि दालें जिन्हें मुख्तार साहबके लेखपरसे न्यायाचार्यजीने पार्श्वनाथ चरितको उठाकर देखा । वहां हम प्रस्तुत प्रसंगी. उद्धृत क्यिा है तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि पयोगी एक साथ दो ही नहीं किन्तु तीन श्लोक पाते हैं पर्वार्थसिद्धिकारने उन्हें रत्नकर गइसे नहीं जिया, किन्तु जो इस प्रकार हैं -
संभव है रत्नकरण्डकारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धिके स्वामिनश्चरितं तस्व कस्य नो विस्मयावहम् ।
आधारसे की हो! देवागमेन सर्वज्ञो येन अद्यापि प्रदर्श्यते ॥ १७ ॥
इस सम्भावनाको लेकर ज्यों ही मैंने अपनी दृष्टि
स्नकरण्डश्रावकाचारपर डाली यो ही मेरी दृष्टि उस रचना भचिन्त्यमहिमा देव सोऽभिवन्धी हितैषिणा।
के उपान्न लोकपर अटक गई जहा उम ग्रन्थके कर्ताने शब्दाश्च येन सिद्ध यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥१८
श्लेषरूपसे अपनी रचनाके भाधारभून ग्रन्थों व अंधकारोंका स्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षयसुग्वावहः ।
उल्लेख किया है । वह श्लोक हम प्रकार हैअधिने भन्यसार्थाय दिष्टो रस्नकरण्डकः ॥ २६ ॥
येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्यादृष्टिक्रियात्मकरण्डभावम् । वादिराजसूरिने इन तीन श्लोकोमेसे प्रथममें स्वामी व
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिनिपु विष्टपेषु ।२८ उनके देवागमका, दूसरेमे देवकृत शब्दशास्त्रका एवं तीसरे यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्र द्वारा बतलाये गये वाच्यार्धके योगीन्द्रकृत रत्नकरण्डका उल्लेख किया है । प्रथम और अतिरिक्त श्लेषरूपसे यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता तृतीय उल्लेख तो स्पष्ट हैं, किन्तु यह बीचका उल्लेख है कि "जिसने अपनेको प्रकल और विद्यानन्दिके द्वारा किसका है यह प्रश्न उपस्थित होता है । यदि ये तानों प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नोंकी उल्लेख किसी एक ही ग्रंथकार और उसकी ही तीन पिटारी बना लिया है उस तीनी स्थलोपर सर्व श्रर्थों की रचनाओंके माने जा सकते तो न्यायाचार्यजी उसका उल्लेख मिद्धिरूप सर्वार्थ सिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैस इच्छा किये विना कभी न रहते । पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। मात्रम पति को अपनी पत्ना।' यहाँ निस्पन्देहत: स्नकरगढइसका कारण यही समझमे आता है कि वे न तो उस कारने तत्वार्थसूत्रपर लिस्बी नई तीनी टीकाओंका उल्लेख बीचके उल्लेखको समन्तभद्र स्वामीकी रचना सम्बन्धी किया है। सर्वार्थसिद्धि कही शब्दशः और कही अर्थत: स्वीकार कर सके और न उसे किसी अन्य ही ग्रन्थकार अकलंकृत राजवानिक एवं विद्यानन्दिकृत श्लोकवार्तिक सम्बन्धी स्वीकार कर सके । फलतः प्राप्तमीमांसा और में प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिपने अकलककृत भौर गनकर एकको भिन्न कालवर्ती दो भिन्न भिन्न प्राचार्योकी विधानन्दिकी रचनाओको हृदयगम कर लिया उसे सर्वार्थरचनाएँ मान सके । बात यह है कि वह बीचका उल्लग्न पिन्ति स्वयंपा जाती है। गनकरण्डक इस उलग्नेश्वपरमे उन्ही देव अर्थात् देवनन्दी पूज्यपाद और उनके सुप्रसिद्ध निर्विवादम सिद्ध हो जाता है कि वह रचना न केवल शब्दशास्त्र जैनेन्द्र व्याकरणका है जिनका उल्लेख हविश पूज्यपाद मे पश्चा' कालीन है, किन्तु अकलच और विद्यानन्दि गुगण, आदिपुराण तथा अन्य अनेक ग्रंथा व शिलालेखो मे भी पीछे की है। अतएर जिन ग्रन्थों में इस ग्रन्थम पादिमें पाया जाता है (देखो, पं० जुगलकिशोरजी मुन्नार नुस्य वाक्यादि पाये जाते हैं उनके पुर्वापरयका विचार अब द्वारा सम्पादित समाधितंत्रकी प्रस्तावना पृ० ३) । इस इमी प्रकाशमं करना चाहिये । च् कि न्यायाचार्यजी प्राप्तश्लोककी स्थितिपरमे वादिराजसूरिका यह मत स्पष्ट हो मीमामाकारको पूज्यपादसे सुप्राचीन स्वीकार करते हैं,