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अनेकान्त
वर्षे ७
सहयोगी 'जैनमित्र' ने इसे जो नहीं छापा उसका क्या न छापनेमें शुद्ध उद्देश्य जैसी कोई सफाई उसके पास थी कारण हो सकता है और उसका ऐसा करना कोई औचित्य नहीं, इस खिये मेरे उक्त रेग्राफको न छापना ही उसने रखता या नहीं इसपर विज्ञ पाठकों तथा निष्पक्ष विचारकों अपनी बचत एवं रक्षाका साधन समझा, जिससे उसके को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। जहां तक मैं समझता पाठकोंके सामने पत्रकारके कर्तव्यको इस तरह अवहेलनाका हूँ प्रो० साहबका वह नोट 'जैनमित्र' को छपनेके लिये भेजा प्रश्न ही उपस्थित न होने पावे। यदि मेरा यह अनुमान गया है और जैनमित्रने उसे छापा नहीं-न भेजा गया होता ठोक है तो कहना होगा कि सहयोगी जैनमित्रने पत्रकारके तो वह पं. नाथूरामजी प्रेमीके लेखको छापते हुए उनके कर्तव्यकी स्वल अवहेलना की-धर तो प्रो. साके माक्षेपपर अपनी सफाई जरूर देता और यह स्पष्ट कर देता विषयमें लोग गुमराह रहें और उनकी सफाईसे भी अवगत कि उसके पास प्रो० सा० का यह नोट नहीं पाया है अथवा न हो सकें. इस उद्देश्यको लेकर उसने उनका नोट नहीं पाया है तो अमुक कारणसे नहीं छापा गया। परन्तु उसने छापा, जो प्रेमीजीके शब्दों में प्रो. सा. के प्रति जरूर ऐसा कुछ भी नहीं किया। और जब मेरे लेखके उक्त पैरे अन्याय है, और उधर अनेकान्तकी सफाईको छिपानेग्राफमें यह देखा कि मैंने 'अनेकान्त' की पोरसे सफाई उसकी पोजीशनको प्रकृत विषयमें पहन होने देने और प्रस्तुत करते हुए प्रेमीजीके दोषारोपणको 'बहुत कुछ ठीक' अपने दोष (पत्रकारके कर्तव्यकी अवहेलना) पर पर्दा डालने बताया है तथा पूर्ण ठीक होनेके लिये न छापने के उद्देश्य के लिये मेरे लेखसे उक्त रेग्राफको ही निकाल दिया है। को स्पष्ट किया और उस उद्देश्यमे न छापने वालेको यदि ऐसा नहीं है तो सहयोगी जैन मित्रको अपनी स्थिति अवश्य ही पत्रकारके वर्तव्यकी अवहेलना करने वा ठह- स्पष्ट करनी चाहिये और यह बतलाने की कृपा करनी चाहिये राया है, तो सहयोगी जैनमित्रको हमसे कुछ अांच पहुँची कि प्रो. हीरालालजीके नोटको न छापने और मेरे लेखये है और गालबन यह महसूप हुआ है कि यदि वह अब भी उक्त पैरेग्राफको निकाल देने में उसका क्या हेतु रहा है? अपनी भोरसे कोई सफाई पेश नहीं कर सकता तो जरूर जिसमे उसकी नीतिक विषयमें समाजको कोई गलतफहमी अपने पाठकों की नजरों में दोषी ठहरेगा। प्रो.सा.के नोट न हो सके। जीवट्ठाण सत्प्ररूपणाके सूत्र में मृडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंमें 'संजद' पाठ है।
उपलब्ध प्रतियोंके उक्त सूत्रके पाठमें 'संजद पद न होनेपर "टीका वही है जो मुद्रित पुस्तकमें है। धवलाकी दो भी सम्पादकोंने जो वहां उसके होनेकी कल्पना की थी उसपर ताडपत्रीय प्रतियों में सूत्र इसी प्रकार संजद' पदसे युक्त कुछ समयसे विद्वान मुझपर वेहद रुष्ट हो रहे हैं, और लेखों, है। तीसरी प्रतिमें ताडपत्र नहीं है पहले संशोधन मुकाबला शास्त्रार्थों व चर्चामों में नानाप्रकारके मुझपर आक्षेप कर रहे करके भेजते समय भी लिखकर भेजा था। परंतु रहा कैसा, हैं। यहां तक कि उस समयके एक सहयोगी सम्पादकने तो सो मालूम नहीं पड़ता, सो जानियेगा। प्रकट रूपसे अपनेको उस जिम्मेदारीसे पृथक कर लिया है। इसपरसे पाठक समझ सकेंगे कि षट् खंडागमका पाठ इस परिस्थितिको देखकर मैंने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय संशोधन कितनी सावधानी और चिन्तनके साथ किया गया प्रतियोंसे उस सूत्रके पुनः मिसान करानेका प्रयत्न किया है। तीसरे भागकी प्रस्तावनामें हम लिख ही चुके थे कि उस जिसके फलस्वरूप मूडविद्रीसे पंडित लोकनाथजी शास्त्री भागमें हमने जिन ११ पाठ की कल्पना की थी उनमेंसे १२ अपने ता०२४-१-५५ के पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि- पाठ जैसेके तैसे ताडपत्रीय प्रतियों में पाये गये और
"जीवट्ठाण माग | पृष्ठ नं. ३३२ में सूत्र ताडपत्रीय शेष पाठ उनमें न पाये जाने पर भी शैली और अर्थकी मूलप्रेतिमें इस प्रकार है
दृष्टिसे वहां प्रहण किये जाना अनिवार्य है। अब उक्त सूत्र ___'तत्रैव शेषगुणस्थान विषयारेकापोहनार्थमाह-'सम्मा- में भी संजद' पाठ मिल जानेसे मर्मज्ञोंको संतोष होगा, मिच्छाइटि-भसंजदसम्माइट्टी-संजदासंजन . संजदाणे ऐसी भाशा है।
हीरालाल शियमा पजत्तियाो।