________________
निर्णय एवं उनके रचित अन्य प्रन्थपर ही प्रकाश डाला देवेन्द्रसूरिके गच्छका निश्चितरूपसे निर्णय करनेके एक गया है। अतः हम इन विषयोंपर प्रकाश डालनेका प्रयत्न संकेत हमारे प्रेषित उपयंत प्रतिके लेखकका किया हुमा इस लघु लेख में कर रहे हैं।
निर्देश है-इस प्रतिके पत्र १६ मे दिनचर्याप्रकरणकी प्रन्थका इतना समय-बीकानेरके ज्ञान भंड.रोंमेंसे समाप्तिमें (पत्र २०-२२) देवेन्द्रसूरिका विशेषण इस 'अलोण्यप्रकाशकी २ प्रतियाँ श्राधी श्राधी पं. रामस्वरूप प्रकार लिखा है:भार्गवको मैंने भेजी थीं, उनमेमे एक प्रति काफी प्राचीन- "महा मण्डलेश्वर प्रगानपाद त्रैवेद्यवृन्दारक प्रतिभा हमारे खयाल से विक्रमकी पन्द्रहवीं शदीसे पीछेकी न होगी सर्वज्ञ श्रीमद्देवेन्द्र शिष्य श्री हेमप्रभामूहिकृत" का अनिम आधा हिस्सा हमारे पास रह जाने मूलराजजी महामण्डलेश्वर गुरु श्रीदेवेद्रमूर्शिशस्य हेमप्रभपूरिग्रंथके रचनाकालका निर्णय न कर पाये। जब कि उपर्युक्त विचिते।" प्रतिमें त्रैलोक्यप्रकाश ग्रन्धकी समाप्तिके पश्चात् प्रतिके लेखक
उपर्युक्त प्रशस्ति में उल्लिम्बित महामण्डलेश्वर कौन थे? में संभवत: जिस प्रतिय उपकी नकल की गई हो उसके
एवं उसके गुरु देवेन्द्रसूरि कम गरछमें हुए है, यह बात शाधारसे स्पष्टरूपमे इस ग्रथा रचनाकाल इस प्रकार किसा अन्य आधारस नात हा जानम हमप्रभमुरिक लिखा है-'सवत् १३.५ न माघ बदि १३ गुगै
गच्छका स्वत: निर्णय हो जायगा । अाशा पाहिन्यसेवी निष्पन्न." इस उस लेखमे ग्रंथका रचना सवत, तिथि और विद्वानोंका इस सम्बन्धम कुछ विशेष उल्लेख देखने में का भी निश्चित हो जाना।
श्राया हो तो प्रकाश लावगे।
हेमप्रभसूरिक अन्य ग्रन्थ----जैन प्रन्यातली पृ. ग्रन्यकार-५ ५ ग्रथन अपने गुस्का नाममात्र
३४६, ३४६, ३५६ मे हेमप्रभमुरि के ३ ग्रथोंका उल्लेख ही देकर गच्छका कोई उल्लेख नही किया है। अन्य साधनों
है-१ अर्थकाण्ड, २ मण्डलपति ३ मेघमाला। इनमेसे के श्रभानम गछका निर्णय करना भी कठिन है क्योंकि
अर्थकार-अर्घकाण्ड है और वह त्रैलोक्यप्रकाशका ही इसी समय के लगभग देवेन्द्र सूरन के ३ श्राचार्योंका पता
एक अश है । मण्डल पति भी इसी ग्रन्थके एक प्रकरण चलता है। नवाच्छ, २ नागेन्द्र गच्छ और ३ तपागच्छ ।
का नाम है अत: त्रैलोषयप्रकाशके अतिरिक्त केवता , ग्रंथ और इन याचार्योक गिप्योके नामोमे हमप्रभसूरका नाम
'मेघमाला' ही इनकी दुमरी रचना है। हमारे प्रेषित नही पाया जा। हमारे ख़याल से प्रस्तुत देवेन्द्रमूरि चन्द्र
पन्द्रहवीं शनीकी उपयुक्त प्रति २३ पत्रोंका है और उसके गच्छके होनसभा हैं। जनमाहित्य नो इतिहासकं पृष्ट ३२४
२३ व पत्रमे हेमप्रभमूरिक त्रैलोक्यप्रकाशकी समाप्तिक म चन्द्र गच्छ ना धर्ममूरि-रत्नसिह-देवेन्द्रसूरिना शिग्य
अनन्तर मेघमाला ग्रयों को श्राप हैं। उसके बाद के कनकप्रभ हमन्यायमार नो उद्धार को लिख्या है। इससे
पत्र नहीं मिलने के कारण वह प्रथ इम प्रनिमें अधूरा रह चन्द्रगच्छक देवेन्द्रमूरिक प्रभान्त नाम वाले शिप्य होनेश पता चलता है। मप्रभ और कनकप्रम नाम एकार्थक और
गया है। पर हममे पहन यह नो निश्चित हो जाता है कि
मेघमाला ग्रथ उन्हीकी रचना है। इसकी पूरी प्रति जैन मिलते जुलते भी हैं। अत: दोनोका गुरु भ्राता ह.ना कोई असंभव नही है।
प्रन्थावलीके अनुसार 'लीबड़ीके भष्टारक्षम है।
* जैनग्रन्थावलीक. पृ० ३४६ की टयगाम अवघापमारक * यह प्रतिबंई ज्ञानमडारक अंतर्गत वहमानभंडार के न० शिष्य होने का अनुमान किया गया है पर की। नही है । २१ की है। त्रैलोक्यप्रकाशको श्लोकसंख्या इन के अनुर *प्रकाशित लीचड़ी भडामचंग का उल्लय नही १२०६ पद्य है।
पाया जाता।