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इतिहासमें भगवान महावीरका स्थान (ले०-बा० जयभगवान जैन एडवोकेट, पानीपत )
महावीरसे पूर्वकी स्थिति
धारा मवहार-राब खोगोंडी इस दुनियावी ररिकी सपज दुनियाके इतिहासमें सासे ... वर्ष पहिलेका थी, जो मनुष्यके ऐहिक-जीवनको सुखी और सम्पब देखना काल भाजके कारसे बहुत कुछ मिलता जुलता हाहै. चाहती थी। तीसरी बारा वीतरागी श्रमोंके सब भरपूर इस लिये इस युगकी परिस्थिति, प्रकृति और उनके परि दोंसे निकली थी, जो इस निस्मार, :खमय जीवनये यामोंको अध्ययन करना हमारी अपनी कठिनाईयोंको इस परे किसी अक्षय अमर सचिदानन्दजीवनका मामास कर करने के लिये बहुत जरूरी है। यह वह जमाना था, जब
रहे थे। इन्हीं तीनों पाराभोंके संगमपर भगवान महावीर
का जन्म हुआ था। इन्सानका जीवन मानसिक, धार्मिक और सामाजिक रुलियों
पपि उस समय ये तीनों विचारधारा अपनी अपनी से जकडा हुधा था। उसके विकासका स्वाभाविक सोत
पराकाष्ठाको पहुँच चुकी थीं-देवताबादमें "एकमेव दि. बहते बहते कर्तव्य-विमूहतासे पककर ठहर गया था। वह
तीया " का भान हो चुका था, अपवाद अपने बौकिक भनेक देवी-देवताओंकी मा-प्रार्थना करते करते अपनी
अभ्युदय बायको चक्रवर्तियोंकी निर्वाच समृद्धिमापन गुलामीसे उप चुका था और जाति, वर्ण तया धर्मके नाम
एकमात्र राष्ट्रीयताकी ऊंचाई तक चुका था और अभ्यापर बरते-भगदते उसका मन थक गया था। तब भाजादी
त्मवाद निर्विकल्पकैवल्य' जैसे मामा सर्वोच्च पादर्शको की भावना उठ उठ कर उसे वाचाल बना रही थीं। तब
एकर परमात्मपदकी सिद्धि कर चुका था, वह 'सोऽहम्' इसका मन किसी ऐसे सस्य और हकीकत्तकी तबाशमें घूम
और तस्वमसि' के मन्त्रोंकी दीक्षा देकर सर्वसाधारणमें रहा था, जिसे पाकर वह सहज सिद शिव शान्ति और
मात्मा और परमात्माकी एकताको मान्य बना चुका थासुन्दरताका पाभास कर सके, तब वह किसी ऐसी दुनिया
परन्तु कालदोषसे बिगडकर उस समय ये तीनों धारायें की रचनामें लगा था, जहां वह सबके साथ मिलजुल कर
अपनं अपने सहय, सरज्ञान और सत्पुरुषार्थको बोडकर सुखका जीवन बिता सके।
देवन उपरी धमाकारों, मौखिक वितपडावादों और सदिक यह जमाना दुनियाकी तवारीखमें मानसिक जागृति,
क्रियाकाण्डों में फस गई थी। अहंकार, विमूढता और दुराधार्मिक क्रान्ति और सामाजिक उथल-पुथलका युग था।
प्रहने हम्हें तेरा-तीन किया हुमाया। इनके पोषक और इस जमानेने पूर्व और पखिमके सभी देशों में अनेक महा.
उपासक कुछ भी रचनात्मक कार्य न करके केवल अपनी पुरुषोंको जन्म दिया था। अब योरुपमें पाइयेगोरस और
स्तुति और दूसरोंकी निन्दा करने में ही अपनेको कृत्य एशियामें कम्प्यूमस, लामोज जैसे महाराोंने जन्म खिया
मान रहे थे । पचपात इतना बढ़ गया था कि समी सचाई था। उस समय हिन्दुस्तानमें भगवान महावीर और भग.
के उस एक पहलुको देखते जो उन्हें माम्य था, अन्य सभी वान बुद्धने इस जागृति में विशेष माग लिया था।
पहलचोकी वे अवहेलना करते थे-ये सब एकान्तवादी उस जमानेके भारतमें तीन बीपदी विचारधाराय
बने थे। इनकी बुद्धि कूटस्थ हो रखी थी। तब उनमें न काम कर रही थी, जिन्हें हम माज देवतावाद, अपवाद हमके विचारों को सुनने और समझनेकी सहनशीलता थी और अध्यात्मवादके नामसे पुकार सकते हैं। पहली पारा
बामस पुकार सकते हैं। पहला धारा न दूसरों को अपनाने की उदारता थी, न जमानेकी परिस्थिति वैशिकषियों की सरितभरी निगाहसे पैदा हो धीजो
बाषयाका उस रतभरा निगावसे पदाहुर थाना के साथ बदलने सुधरने और भागे बढ़नेकी ताकत थी। कृतिक प्रयों और मकारोंको देख देखकर उनमें इन दिनों में संकीयंवा जवानमें कटुता और पविमें मनुष्योत्तर दिव्य शक्तियोंका भान कमा रही थी। दूसरी हिंसा भरी थी।