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अनेकान्त
[ वर्ष ७
मे वातावरणमें जात पात और वर्णव्यवस्थाके और भौतिक संस्कृतिको फैजानेके लिये जदवादके प्रसिद्ध मकीर्ण भावों को फलने-फूलने की खूब प्राजादी मिली थी। प्राचार्य अजितकेशकम्बली और वृहस्पति मैदानमें पा रहे तब जन्मके भाधार पर छुटाई बाईकी रूपनाोंने भार. थे। तीसरी तरफ भौतिकवादकी निस्मारता दिखाने के लिये तोय जनताको अनेक टुकडोंमें बांट दिया था। भारतकी अक्षपाद गौतम जैसे न्यायदर्शनको जन्म दे रहे थे । इनके मूल जातियों की दशा जो मानवताके क्षेत्रमे निकाल कर साथ ही साथ मस्करी गौशाल, संजय, प्रकद कात्यायन क्षुद्रताके गढ़ में धकेल दी गई थी, पशुओंसे भी परे थी। और पूर्णकश्या जैसे कितने ही प्राध्यामिक तत्ववेत्ता उन्हें अपने विकापके लिये पार्मिक, राष्टिक और मामाजिक अपने अपने ढगसे जीवन भीर जगतकी गुत्थियोको सुलमा कोई भी अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त न थीं। तब धर्मके नौ लगे थे। नाम पर सब ओर हिंमा, विलापिता और शिथिलाचार बढ़ जैनधर्मका उद्धार और तत्कालीन स्थिति रहा था। मांस, मदिरा और मैथुन व्यसन खूब फैल रहे का
का सुधार - थे, स्त्री गोया स्वयं मनुष्य न होकर मनुष्य के लिये भोग
ऐसे वातावरण में लोगों के दिलों में ममता, मनमे उदावस्तु बनी हुई थी। व्यर्थ के अन्धविश्वासों, क्रियाकाण्डों
रता, बर्तावमें सहिष्णुता और जीवन में संयम-सदाचार भरने और विधि-विधानमि समाजके धन, समय और शक्तिका के लिये भगवान महावीरने अपने भादश जीवन और हास हो रहा था। तब धर्म मधिमादे प्राचारकी चीज न
उपदेश-द्वारा जिस श्रमण संस्कृतिका पुनरुद्वार किया था रहकर जटिल भाडबरकी तिजारती चीज बन गई थी, वह उनके पीछे जैनधर्मके नामसे प्रसिद्ध हुई। भगवान जो यज्ञ-हवन कराकर देवी-देवताओंम, दान-दक्षिणा देकर
महावीर इस धर्मके कोई मूल-प्रवर्तक न थे वह उसके पुगेहित पुजारियोंमे स्वरीती जा रही थी।
उद्धारक ही थे, क्योंकि यह धर्म उनसे बहुत पहिले, उस समय भारतके श्रमण साधु भी विकारमे वाली वैदिक आर्यगणक धानेमे भी पहिले, यहाँके मूलवासी नथे। उनमें से बहुतमे तो ऋद्धि-सिद्धिके चमत्कारों में पड़कर द्रविड़ और नाग लोगों में महंत, यति वास्य, जिन, निम्रन्य हठयोगके अनुयायी बने थे। बहुत माधुओं जैमा बाहरी अथवा श्रमण-सस्कतिके नामसे बराबर जारी था और पीछे रंगरूप बना कर रहने में ही अपनेको सिद्ध मानते थे। बहुत से विदेह और मगध देशों में भाकर बसने वाले सूर्यवंशी सतनकी बाहरी शदिको ही अधिक प्रधानना रहे थे। पार्यगय अपनाया जाकर पार्यधर्ममें बदल गया था। बहतमे सुम्ब शीलता पर कर थोधी सैद्धान्तिक चर्चाओं यह धर्म भारत-भमिकी ऐसी ही मौलिक उपज है. जैसे और वाकसंघर्ष में ही अपने समयको बिता रहे थे। बहुन कि यहाँक शैव और शाक्त नामके प्राचीन धर्म । इस ऐतिसे दम्भ और भयसे इतने भरे थे कि वे दूसरोंको अध्याम हामिक सच्चाईको मानने के लिये गो शरू शुरूमें ऐतिहासज्ञोंको विद्या देने में अपनी हानि सममने लगे थे।
बढी कठिनता उठानी पड़ी, किन्तु आज प्राचीन साहित्य भारतकी इस परिस्थिति में जब धर्मके नामपर मान- और पुरातत्वकी नई खोजोंसे यह बात दिन पर दिन अधिक वताका खून और प्रामाका शोषण हो रहा था, सबही प्रमाणित होती जा रही है कि जैनधर्म भारतके मूलवासी हृदयों में प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं और प्रवृत्तियोंके द्रविड नोगोंका धर्म है। और महावीरमे भी पहिले इस विरुद्ध एक विद्रोह की लहर जाग रही थी, विचारों में उयल- - पुथल मची थी, स्थितिपालको और सुधारकों में संघर्ष चल । (अ) Plot Belvalkar-Brahma Sutra रहा था। इस संघर्षके फलस्वरूप तब सभी भाराओंके P 107 विद्वान अपने अपने सिद्धान्तोंकी संभाल, शोध और उनके (91) Prof Hermann Jacobi-S B. E इकट्ठा करने में लगे थे। एक तरफ वैदिक परम्पराकी रक्षाके Vol. XLV Jaina Sutias Part II, जिय भास्कराचार्य, शौनक और भाश्वलायन जैसे विद्वान 1895-Introduction pp XIV पैदा हो रहे थे। दूसरी तरफ वैदिक संस्कृतिको मिटाने -XXXVI.