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किरण ११-१२]
इतिहास में भगवान महावीर का स्थान
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धर्मके प्रचारक ऋषभदेव आदि २३ तीर्थकर और हो चुके भान्धी तूफान, भूकम्प ज्वाजाम्फोट, दिल. चूहे और हैं। इनमेंये अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ तो माज बहुत सांप प्रादिक भयानक उपद्रवोंको भनेक ककर्मा र स्वअंशोंमें ऐतिहासिक म्यक्कि भी सिद्ध हो चुके हैं। भाव देवी-देवताओंकी शक्तिया कल्पित करते थे और इन __ श्रमण-संस्कृति सदा ही जीवन-वकासके लिये मात की शान्ति के लिये अनेक प्रकारक धिनावने तान्त्रिक विधान तत्वोंको मुख्यता देती रहीहै-प्रारमविश्वास, मानसिक पशुबलि और नरमेधका प्रयोग करते थे। वैदिक मार्यों के उदारता, संयम, अनामक्ति, अहिंसा पवित्रता और समता। देवता यप हनशी अपेक्षा पौम्य और सुदर थे परन्तु भगवान महावीरने इन्हें ही माधना-द्वारा अपने जीवन में रष्टि वही प्राधिदैविक था। ये इन्सानी जिन्दगीको सुखउतारा था और इन्हीं की सबको शिक्षा-दीक्षा दी थी। यही सम्पत्ति देने वाले इन्द्र, मन, वायु, वरुण प्रादि देवताभों सात प्राध्यामिक तत्व प्राज जैन दार्शनिकोंकी बौद्धिक परि को मानते थे। इस लिये धन धान्यकी प्राप्ति, पुत्र-पौत्रोंकी भाषामें जीत, अजीव, पानव, बंध, संवर, निर्जरा और उत्पत्ति, दीर्घायु मारोग्यताकी सिद्धि शत्रु विजय भादिकी मोक्षक नामसे प्रसिद्ध हैं।
भावनामि उन देवनाओको यज्ञों-वार। खूब पन्तुष्ट करते वर्णव्यवस्था और मानवता
थे। इन यज्ञोमें बनस्पति घी आदि सामग्रीके अलावा
पशुओंकी भी खूब बलि दी जाती थी। इस तरह के विश्वासों भगवानने सामाजिक क्षेत्र में जन्मक प्राधारपर बने हुए
मे मनुष्यको प्रामविश्वास और पुरषार्थम हीन बना कर मानवी भेदभावोंका घोर विरोध किया। उन्होंने बतलाया
देवताओं का दाम ही बना दिया था। इस हालतसे उभारने कि जन्मकी अपेक्षा सभी मनुष्य समान है-मय ही एक
के लिये महावीरन बतलाया था कि मनुष्य का दर्जा देव. समान गर्भ में रहते हैं, एक समान ही पैदा होते हैं । सपके
ताओं बहुत ऊंचा है। मनुष्य अपने बुद्धिबल और योगशरीर और अंगोपात भी एक समान हैं, किन्हीं दो वर्णों के
बजम न केवल देवताओं को अपने प्राधीन कर सकता समागमसे मनुष्य ही उत्पन्न होता है। हम लिये मनुष्यों
बल्कि वे काम भी कर सकता है, जो देवताओंके लिये प्रसमें जन्मकी अपेक्षा विभिन्न जातियोंकी कल्पना करना कुदरत
म्भव है। मनुष्य यांगमापनासे गिामा, गरिमा मादि नियमके खिलाफ है। जन्मसे कोई भी ब्राह्मण, समय,
अनेक मिबियों को हामिल कर सकता है और अपनेको शिल्पी और चोर नहीं होते वे पर अपने कर्म, स्वभाव
परमात्मा तकस मिजा सकता है। और गुणोंसे ही ऐसे होते है। मनुष्यों में श्रेष्ठता और नीचता उनके अपने प्राचार-विचार पर ही निर्भर है। जो मनुष्यका सुखद स्व देवतायोक माधान नहीं है। लोग कुल, गोत्र, वर्ण श्रादि लोक-व्यवहत संज्ञानोंके यक्षिक स्वयं अपनी ही वृत्तियों और कृतिया भाचीन अभिमानमे बंधे हुए हैं, वे कल्याणके मार्गमबहत दर है। है-जी जैमा कर्म करना है वह वैमा ही फल पाता है। इन अभिमानोंको छोड़े बिना मनुष्य न अपना हित कर।
कर्मम ही स्वर्ग और कर्मम ही नरक मिलता है । इस लिये सकता है, न दूसरोंका।
मनुष्यको कम करने में बहा मावधान होना चाहिये । संसार
के सभी जीव स्वभावमे मौम्य और श्रेष्ठ है, ऊध्र्वगामी हैं। देवतावाद और अध्यात्मवाद
सभीमें परमात्मस्व श्रोतप्रोत है-अन्तर केवल उनके धर्मक्षेत्र में तो यहांकी प्राम जनता पुरानी रूठियोंकी।
विकाममें है जीवोका यह विकास जहा उनके किमी भावापर अनुयायी होनेसे अजीब अन्धविश्वामों और मुल प्रथाोंमें
दिव्य संमीर काल पर भी निभा फंसी हई थी। अनार्य लोग रोग, मरी, दुभिच, जलबार । भीतर और बाहिरकी मितिका अापसम बदा () R. B Ramprasad Chanda- घनिष्ट सम्बन्ध । एकका प्रभाव परे पर निरन्तर पद्धता
Surnival of the Prehistorue civi- रहता है। इन स्थितियोंकी प्रतिकूलतामें जीवका पतन होता lisation of the Indus Valley- है और इनकी अनुकुलनाम उसका उद्धार होता है। इस pp. 25-33.
लिये मनुष्यको उचित है कि वह अपने भावोंके मुधारक