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अनेकान्त
[वर्ष ७
गया। इस वंश के प्राय: सर्व ही गजे जैन थे। बिम्बसार के जीवनसंबन्धी जितना वर्णन जैन अनुभूति में मिलता है प्रारंभमें महात्मा बुद्ध के उपदेशसे प्रभावित हुआ था अन्यत्र नहीं मिलता। मौर्य वंश के तृतीय सम्राट महाराज अवश्य, किन्तु जब ई० पूर्व ५५८ में उसकी राजधानीसे अशोकके धर्मका अभी कुछ निश्चित निर्णय नही हो पाया। लगे हुए विपुलाचल पर्वतसे भगवान महावीरकी प्रथम सामान्य धारणा उसके बौद्ध होनेकी है किन्तु डा. टामस' देशना हुई तो वह उनका अनन्य भक्त हो गया । वह भग- श्रादि अनेक इतिहामज्ञ विद्वानोका मत है कि वह जैन ही वानका प्रथम और प्रमुख गृहस्थ श्रोता था । उसके पुत्र था और यदि उसने बौद्धधर्म अङ्गीकार भी किया तो अपनी अजातशत्र व अभयकुमार तथा अन्य वंशज भी जैन अन्तिम अवस्थामें। वास्तवमें स्वयं बौद्ध अनुश्र निके अनुधर्मानुयायी ही रहे।
सार अशोकने अपने शासनकाल में बौद्धोंपर बड़े अत्याचार शिशुनाग वंशके पश्चात् मगधमें नन्दवंशका शासन किये थे। उस धर्मके प्रति अशोक की उपेक्षाका ही यह रहा । प्रथम शासक सम्राट नन्दिवर्धन था। उसने राजगृही परिणाम हुआ कि तत्कालीन बौद्धधर्माध्यक्षोने बौद्धोंको में प्रथमजिन भगवान ऋषभदेवकी प्रतिमा कलिङ्ग देशसे भारतेतर प्रदेशोंमे प्रयाण कर जानेका आदेश दिया। लाकर स्थापित की थी। उत्तरनन्द भी जैनधर्मानुयायी थे, अशोकका उत्तगधिकारी सम्प्रति तो निश्चय कट्टर उनका मन्त्री शकटाल जैनी था । शकटालके पुत्र ही जैन धर्मानुयायी था और जैनधर्म के प्रचार और प्रसारमें प्रसिद्ध जैनाचार्य स्थूलभद्र थे।
उसने वह सब प्रयत्न किये जिनका श्रेय भ्रमसे बौद्धधर्मके नन्दवंशका उच्छेद कर सम्राट चन्द्रगुप्त ने मगधमें लिये सम्राट अशोकको दिया जाता है। सम्प्रतिके वंशज मौर्यवंशकी स्थापना की वह सर्वसम्मतिसे पक्का जैनसम्राट मगधके शालिशुक, देवधर्म आदि, अवन्तिका वृहद्रथ, था। अन्तिम श्रुतकेवलि भद्रबाहु स्वामी उसके धर्मगुरु थे। गाधारके वीर मेन, सुभगसेन, काश्मीरके जालक–सर्व जैनथे। कुछ समय गज्यभोग करने के पश्चात् द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष ई० पूर्वकी ३ री शताब्दीके अन्त में मगधमें क्रान्ति के समय मम्राट चन्द्रगुप्त गुरु तथा उनके सघके साथ दक्षिण हुई। मौर्य वंशका उच्छेद कर ब्राह्मण शङ्गवंशका और को चला गया था। वहाँ वर्तमान मैसूर राज्य के अन्तर्गत तत्पश्चात् कन्व वंशका राज्य कोई सौ सवासौ वर्ष रहा । श्रवणबेलगोल के निकट चन्द्रगिरि पर्वतपर मुनिरूपमें यह दोनों वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। किन्तु कन्व वंशके तपश्चरण कर अन्त में समाधि मरण पूर्वक देव त्यागी थी।३ पश्चात् फिर मगध वैशालीके जैन लिच्छवियोंके अधिकार गिरनार, शत्रुञ्जय आदि तीर्थोकी यात्राके ममय उक्त पर्वतके मे आगया। ई. सन् की ४ थी शताब्दी तक उन्हीके नीचे उसने यात्रियोंके लाभार्थ प्रसिद्ध सुदर्शन झीलका अधिकारमें रहा और अन्त में एक वैवाहिकमबंधके कारण निर्माण कराया था। चन्द्रगुमका उत्तराधिकारी विन्दुमार, लिच्छवियोंकी ही सहायतासे गुमवंशी सम्राट हिन्दु-पनरुद्धार तथा उसका प्रसिद्ध मन्त्री चाणक्य भी जैन ही थे। के प्रवर्तक थे। राजनीति और समाजशास्त्रके इस प्रसिद्ध प्रकाण्ड श्राचार्य मलय अथवा चेदिका विस्तार मध्यभारतसे लगा कर १ Kharvel's Inscriptions in the
कलिङ्ग तक था। चेदिवंशकी एक शाखा वर्तमान बुन्देलOrissa Caves.
खंड श्रा.द प्रान्तोंमें, जिसे मध्यकलिङ्ग भी कहा जाता था, २ Ancient India P. 27-by Dr.
गज्य करती थी। दूसरी शाग्वा कलिङ्ग (उड़ीसा) में । T. L. Shah.
कलिङ्गमें बहुत प्राचीनकालसे जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। वीर. Early Hist. of India-V. Smith: निर्वाण संवत् १०३ में (*. पूर्व ४२४) मगधसम्राट नन्दिAsoka P. 13-Dr. R. K. Mukerjee.,
वर्धन कलिङ्गको विजयकर वहाँसे प्रथमजिनकी मूर्ति मगध
में ले पाया था। किन्तु उत्तर नम्दोंके समय कलिङ्ग फिर etc. Dr. H. Jacobi-Intro. to Jain १ The Early Faith of Asoka-Dr. Sutras P. 62.
E. Thomas.