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अनेकान्त
[ वर्ष ६
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हुश्रा जाता उस वक्त तक प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो पाती। यह सर्वेमर्वा है इसके बिना वे अपने जीवनकी एक घड़ी भी ___ इस प्रकार जब योग्य साधनों द्वारा ममताभाव जागृत जाना अपने लिये हानिकारक समझते हैं-समता उनका होता है तब निःसङ्ग वृत्तिका मार्ग सूझता है। वास्तवमें सर्वस्व है। श्रीकुलभद्राचार्य सारममुच्चयमे फर्माते हैं:समता ही सुखका मूल है, समता रखनेवाले पर कभी समता सर्वभूतेष यः करोति सुमानसः। दुःख नहीं पाता; क्यों कि वस्तुस्वभावका यथार्थ ज्ञान होने ममत्वभाव-निमुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् । से उसे दुःख दुःख रूप नहीं लगता। जो श्राध्यात्मिक मार्ग अर्थात् -- जो मजन सुमनधारी सर्व प्राणी मात्रमें ममता के पथिक बनने के इच्छुक हैं उनके लिये समताका विषय भाव रखता और ममत्वभावको छोड़ता है, वह अविनाशी सबसे अधिक श्रावश्यक है, समताके विना प्रत्येक धर्मक्रिया पदको पाता है। श्रीकुंदकुंदचार्य फर्माते हैं:जप, तप उपवास आदि बहुत ही अल्प फलके देने वाली समसत्तुबधुवग्गो समसुह-दुक्खो पसंम-णिंद-समो। है। जब कोई कार्य समता सहित किया जाता है तो उम समलोट्ठ-कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।। कार्यमें कुछ इस प्रकारका सौंदर्य तथा मधुरता बाजानी है अर्थात्-जो शत्रु तथा मित्र वर्गको समभावसे देखते कि जिमसे उसमें एक प्रकारका अपूर्व आनन्द अनुभवमें हैं जो सुख व दुःखमें समभाव के धारी हैं, जो प्रशंसा तथा
आने लगता है। यह अपूर्व श्रानन्द जिव्हासे वर्णन नहीं निंदा किये जाने पर सम भाव रखते हैं, जो सुवर्ण और किया जा सकता, मिसरीके यथार्थ स्वादको बचनो द्वारा कंकरको एक दृष्टिसे देखते हैं, जिनके लिये जाना तथा
ह सकता है । मिसराका डलीका वय अपना मरना एक समान है, वही श्रमण हैं। जिव्हापर रख कर और उसे चखकर ही कोई उसके स्वाद मोहरूपी अग्निकोशात करने के लिये, संयमरूपी लक्ष्मी को जानता है, उसी प्रकार समता द्वारा प्राप्त हुए श्रानन्दको को प्राप्त करने के लिये, रागरूपी महावन को काट डालनेके उस रसके रमिक अनुभवी योगी ही जानते है-वह अंतरा- लिये समताभावका धारण करना ही एक उपाय है। ममता नन्द अवर्णनीय और अनिर्वचनीय है-अनुभवगम्य है। भावसे ही केवलज्ञानकी प्राति होती है, समभावसे ही अर्हत
समताके द्वारा हृदयकी शुद्धि होती है, उसमें जो पद होता है। जब एक संयमी योगी समताभावरूपी सूर्य की मलीन वासनायें अपना अड्डा जमाये रहती है, कषायरूप किरणो द्वारा रागादि अंधकार के समूहको नष्ट कर देता है कडा करकट भरा हुआ होता है वह समता बिना निकलता तब ही वह अपने प्रात्मामें परमानन्द स्वरूपको देखता है। नहीं, और जब तक हृदप-मंदिर शुद्ध और पवित्र नहीं होता, अनादिकालसे चला आया श्रात्माके साथ कर्म संबन्ध भी हम उसमें शुद्ध चिदानंदरूप श्रात्मदेवको स्थापित नही कर समता भावकी प्राप्ति होने पर ही श्रात्मासे विच्छेदको प्राप्त सकते और न हमारे ध्येयकी पूर्ति दी हो पाती है। मोक्षा- कर पृथक होजाता है । वीरभगवानने समताभावको ही उत्तम भिलाषियोंके लिये समताभाव प्राप्त करना बड़ा जरूरी है। ध्यान कहा है, उसीकी प्राप्तिके हेतु सब व्रत, तप, संयम, कोई कहे कि अाजकल मोक्ष इस क्षेत्रसे होता नहीं, समता उपवास स्वाध्याय आदि किये जाते हैं। ध्यानका श्राधार की क्या आवश्यक है ? इसके उत्तरमें इतना ही कहना है समभाव पर है, ममभावका श्राधार ध्यान पर है। श्रीशुभकि इस समय इन्द्रियोंकी अशुभ प्रवृत्तिको रोक कर उनको चन्द्र प्राचार्य ज्ञानार्णवमें लिखते हैं :शुभप्रवृत्तिमें लगाना अपने जीवनको श्रानन्दमय बनाना सौधौत्संगे स्मशाने स्तुति शरन विधौ कर्द समताके द्वारा ही हो सकता है, समताका अभ्यास कर पल्यके काण्ठकाने दृषदि शशिमणौ चर्मचीनांशुकेषु । अपने जीवनको जितना ऊंचा और आनन्दमय इस क्षेत्रमें शीर्णाङ्के दिव्यनार्यामसमशमवशाद्यस्य चित्तं विकल्पैहम बना सकते है उतना तो बनावें, यह अभ्यास हमारा नलीहं सोऽयमेकः कलयति कुशलःसाम्यलीलाविलासं॥निष्फल नहीं जाता भविष्य जीवनका निर्माण बहुत कुछ अर्थात्-जिस महात्माका चित्त महलोको या शमशान उसके श्राधार पर होता है। कामकषायको जीतनेपर ही को देखकर स्तुति वा निदा किये जाने पर, कीचड़ व केशर समता जाग्रत होती है-सम्यक्रष्टि महात्माओंके लिये तो से छिड़ के जाने पर, पल्यंक शय्या व काँटोंपर लिटाये जाने