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अनेकान्त
[वर्ष
नहीं होता, और इम लिये वे शंकाशील बने हुए है। यद्भारत्याः कविः सोऽभवत्संज्ञानवाग्गः ।
मा नही कि वे एक कार्किकका धर्मशास्त्री तथा योगी तं कविनायकं स्तामि समन्तभद्र-योगिनम ॥ होना असंभव समझते हो, बल्कि इस विषयमें उनकी इसके सिवाय ब्रह्म नेमिदत्तने अपमे 'राधना थादूसरी दलील है और वह केवल इतनी ही कि-किसी कोश' मे, ममन्तभद्रकी क्थाका वर्णन करते हुए, जब प्राचीन श्राचार्योंन स्वामी ममन्तभद्रका धर्मशानी रूपमै योगिचमकारक अनन्तर समन्मभद्रके मुम्बम उनके परिचय उल्लम्बित नहीं किया और योगीन्द्र जैमा विशेषगनी के दो पद्य कहलाये हैं तब उन्हे स्पष्ट शब्दोंम 'योगिन्द्र उन्हें कही भी नहीं दिया गया। परन्तु यह दलील ठीक लिखा है जैसा कि निम्नवाक्यमं प्रकट है.नहीं है, क्यों कि श्रीजिनमनाचार्य मी प्राचीन प्राचार्य "म्फुटं काव्यद्वयं चेति गोगीन्द्रर मुवाच मः।" अक्लक देवनं नागम भाग्य के मंगलपथमे 'यनाचाय- ब्रह्म नेमिदत्तका यह कशाकश प्राचार्य प्रभाचन्द्रक ममन्नभद्र-तिना तम्मै नमः मंततं' इस वाक्य के द्वारा गद्यकथाकोशक प्राधारपर निर्मित हश्रा, और इसलिये समन्मभद्रको 'प्राचार्य' और यति बोनी विशंपणोंके साथ स्वामी समन्तभद्रका इनिहाय लिखने समय मैने प्रमाजीको पल्ले ग्विन किया है जिसमें प्राचार्य विशेषण 'धर्माचार्य उत गद्यक्थाकोशपरम ब्रह्मनेरिदत्त वणित कथाश अथवा 'पागर्यपरमष्टि का वानक है, जो दर्शन, ज्ञान, मिलान करके विशेषतानीका नोट कर देनकी प्रेरणा की थी। चारित्र तप और वीर्यरूप पाचार धर्मका म्बयं पाचरण नदनुग्मार उन्होंने मिन्नान करके मुझे जो पत्र लिखा था करने और दूसंगो अाचरण क.ाने हैं। और हम लिये उपका तुलनामक वाक्यों साथ उल्लेग्न मन फुटनोट यह भानार्यपद धर्मशास्त्री से भी बड़ा है--धर्मशाखिव में उक्त इमिहापके पृ० १०५ १०६ पर कर दिया । हमके भीतर मंनिहिन अपना समाविष्ट है। स्वयं ममन्त. उसपर मानम होता है कि-"दोनों कयायाम कोई भदने भी अपने एक परिचय-पत्र में अपनेको प्राचार्य विशेष फर्क नहै। मिटनकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्य मृचिन किया है।
__कथाका प्राय पूर्ण अनुवाद है।" और जोमाधारणमा दमग 'यनि विशेषण सन्मार्गमे यग्नशीत योगीका फर्क है वह उन फुटनोटमे पत्रकी पपियोंके उद्धग्गा नग वाचा है। श्री विद्यानन्दाचार्य ने अपनी अष्टमहम्रीम स्वामी व्यक्त है। अमः उसपरमे यह कहने में कोई आपत्ति मालम ममन्तभद्रको 'यतिमन श्रीर 'यतीश' तक लिखा है जो नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य कथाशेशम स्वामी दांना ही योगिराज अथवा योगीन्द्र अर्थके द्योतक हैं। ममन्तभद्रको योगीन्द्र रूपमे उल्लेम्विन किया है। चूंकि कवि हतिमल्ल और अरपायन विक्रान्तकारबादिक ग्रंथांम प्रेमीजीके कथनानुमार य गद्य थानगश का प्रभानन्द्र समन्तभद्रकी पदद्धिक-धारण ऋद्धिका धारक-लिखा भी वे ही प्रभाचन्द्र हैं जो 'प्रमेयकमलमानगड' और 'रनहै. जो उनके मान योगी होनेका सूचक है। श्रीर कवि करण्हु-श्रावकाचारका टीकाके का है। अत: स्वामी समन्तदामोग्ने अपने चन्द्रप्रभचरिनमें मापनीर पर 'योगी' भटके लिये योगीन्द्र शिंपण प्रयोगका अनुसन्धान विशेषगाका हा प्रयोग किया है। यथा--
प्रमेयकमलमानगडकी रचनाकं ममय अथवा वादिराजमारक
पश्वनाथ चरितकीरचनामे कुछ पहलेनक पहुँच जाता है। प्रेमी दमणगाणा कारवानिवनवापारे । '
हालनमे प्रेमीजीका यह लिम्वना कि 'योगीन्द्र जैमा विशश्रा ५२ चन--- माया मगा भेगा ।। ५२ ।।
पण ना उन्हें कहीं भी नहीं दिया गया छ भी मंगत --द्रव्यमग्रह
मालूम नहीं होता और वह बीजम कोई विशेष सम्बन्ध न देना, अनंन ... राम प्रकाश । 'ममन्नभद्र रग्वना हुया चलनी लेखनीका ही परिणाम जान पड़ता है। काक या 4.15 शीर्षक मादकार लेग्न । अब रही रचनाशैनी और विषयकी बात। इसमें x"म श्रीवामिममनन भूयाहिमानमान ।' किमीको विवाद नहीं कि 'देवागम' और 'नकरण्ड का "वामी नाम अयनारताशोऽकन मकानि ||" *देखा, जेनमाहित्य श्रार नाम' पृ० ३२६