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करण ५,६] .
स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
विषय प्रायः अलग--एक मुख्यतया प्राप्तकी मीमांसा नहीं पाते ये नो उमका निषेध कर देते थे। माथ ही, जिस को निये हुए है तो दूसरा श्रासकथित श्रावकधर्मके निर्देश बतका उनके लिये नितेश करते थे उसके विधिविधानको को। विषयकी भिन्नता रचना शैलीमे मित्रताका होना भी उनकी योग्यताके अनुकूल नियत्रित कर देते थे। हम स्वाभाविक है, फिर भी यह भिन्नता ऐसी नहीं जो एक नरह पर गुरुजनों द्वारा धर्मोपदेशका सुनकर धर्मानुष्ठानकी माहिन्यकी उनमा तथा दूसरेणी अनुत्तमता (घटियापन) जो कुछ शिक्षा गृहस्थाशे मिलती थी उमीक अनुमार को द्योतन करती हो। रनकरण्डका साहित्य देवागममे जरा चलना वे अपना धर्म-अपना कर्तब्यकर्म-समझते थे. उम भी हीन न होकर अपने विषयकी रष्टिय इतना प्रौढ, मुंदर में 'धरा' (कि, कथमित्यादि) करनाउन्हें नहीं पाता था. जैचानला और प्रौरवको लिये हुए है कि उस सूत्रग्रन्थ अथवा यो कहिये कि उनकी श्रद्धा और भकि उन्हें उस कहने में जरा भी संकोच नही होता। प. प्राशापरजी जैम और (मशयमार्गकी तरफ्त) जाने हीन दी थी। श्राव प्रौढ विद्वानांने तो अपनी धर्मामृत टीकामे उमें जगह जगह में मयंत्र श्राजाप्रधानताका साम्राज्य स्थापिन था और श्रागम ग्रथ लिखा ही है और उसके वाक्योंको 'मूत्र' रूपमे अपनी इस प्रवृत्ति तथा परिणनिके कारण ही वे लोग उल्लेखित भी किया है--जैमा कि पीछे दिये हुए एक 'श्रावक' तथा 'श्राद्ध' कहलाते थे। उस वक नक श्रावव उद्धरण प्रकट है।
धर्म अथवा स्वाचार-विषयपर धावाम तर्कका प्राय और यदि रचनाशैलीमे प्रेमीजीका अभिप्राय उस प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना प्राचार्याका परस्पर 'नर्कपद्धनि' मे है जिम्मेव देवागमादिक कंप्रधान ग्रंथाम इतना मनभेट ही हो पाया था जिसकी व्याख्या का देख रहे हैं और समझते हैं कि नकरण्ड भी उसी रंग अथवा जिमका सामजस्य स्थापित करने आदिक लिये किसी ग्गा हुया होना चाहिये या तो यह उनकी भारी भूल है। को नर्कपद्धतिका प्राश्रय लेने की जरूरत पड़ती। उस वन और तब मुझे कहना होगा कि उन्होंने श्रावकाचार-विषयक नर्कका प्रयोग प्राय: स्व परमतके सिद्धान्तो तथा प्राप्तादि जैनपाहिन्यका कालक्रममे अथवा ऐतिहासिक दृष्टिमे विवादग्रस्त-विपयांपर ही होता था। वे ही तर्ककी कसौटी अवलोकन नहीं किया और न देश तथा समाजकी तात्कालिक पर चढ़े हुए थे. बीकी परीक्षा तथा निर्णयादिकं लिये स्थिनिपर ही कुछ गंभार विचार क्यिा है। यदि ऐसा उमका मारा प्रयास था। और हम लिये उस वकके जो होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस वक्त--स्वामी तप्रधान अथ पाये जाते हैं वे प्राय: उन्ही विषयों समन्तभद्रके समयम-- और उपमं भी पहले श्रावक लोग की चर्चाको लिये हुए हैं। जहा विवाद नही होता वहा प्रायः माधु-मुग्यापंक्षी हुआ करते थे--उन्हें स्वतत्ररूपमे नर्कका काम भी नहीं होता। इसीमे छंद, अलंकार. काव्य ग्रंथाको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय करनेकी जरू- कांश, व्याकरसा, वैद्यक, ज्योतिषादि दमरे कितने ही विषयों रन नहीं होती थी, बल्कि साधु अथवा मुनिजन ही उस के ग्रन्थ तर्कपद्धतिमे प्रायः शून्य पाये जाने हैं। खुद स्वामी वक, धर्मविपर में, उनके एकमात्र पथप्रदर्शक होते थे। समन्तभद्रका 'जिनशतक' नामक ग्ध भी इसी कोटिमे स्थित देशमं उस समय मुनिजनीकी स्वामी बहुलना थी और है--स्वामी द्वारा निर्मिन दोनेपर भी उममें 'देवागम जैम, उनका प्रायः हर वमका मम्ममागम बना रहता था। इससे नर्कप्रथानना नही पाई जाती--वह एक कठिन, शब्दा. गृहस्थ लोग धर्मश्रयणके लिये उन्हीक पाम जाया करते लहार-प्रधान ग्रंथ है और प्राचार्यमहोदयक अपूर्व काग. थं और धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हाप अपने लिये कौशल, अद्त व्याकरण पाण्डित्य और अद्वितीय शब्द: कभी कोई व्रत. किसी खास बन, अथवा व्रतपमूह की धिपन्यको भूचित करना है। नकरयर भी उन्ही तर्क याचना किया करते थे। साधुजन भी श्रावकोको उनके यथेष्ट वर्तव्यकर्मका उपदेश देते थे. उनके यांचित व्रतको "शृणोति गुवाद- धमिनि श्रावन : यदि उचित मममते तो उसकी गुरुमंत्र-पूर्वक उन्हें दीक्षा
-मा. धर्मामृत टीका दंने ये और यदि उनकी शकि तथा स्थितिक योग्य जमे "श्रादः श्रद्वामान --- प्राधर, रमचन्द्र"