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किरण ५-६ ]
भगवतीदास नामके चार विद्वान्
'मल' था । और ये देहलीके भट्टारक गुणचन्द्र के समय मंदिरमें ब्रह्मचारी जोगीदास और पं. गंगाराम प्रशिष्य तथा म. सकलचंदके शिष्य भ. महेन्द्रसेनके उपस्थित थे। शिष्य थे। और वूढियासे योगिनोपुर (देहली) में ही जाकर चौथे भगवतीदास 'ब्रह्मविलास' ग्रंथके कर्ता है। रहने लगे थे। कुछ समय हिमारमें भी रहे थे। भ. ग्रंथपरसे जाना जाता है कि आप भागराके निवासी थे। महेन्द्रसेनके शिष्य होते हुए भी ये भट्टारक नहीं थे, किन्तु आपके पितामह श्रोसवाल जातिके कटारियागोत्री साहू पं. भगवतीदास नामसे ही प्रसिद्ध थे। ये ७ वीं शताब्दी दशरथलाल थे, जो आगराके प्रसिद्ध व्यापारियोंमेंसे थे के विद्वान् थे। इनकी इस समय तीन रचनाएँ उपलब्ध और जिनपर पुण्योदयवश नचमीकी बड़ी कृपा थी। हैं-सीता सतु० (बृहत् व लघु) अनेकार्थनाममाला और विशाल सम्पत्तिके स्वामी होनेपर भी जो निरभिमानी थे। मृगांकलेखाचरित्र । सीतासतु नामकी विस्तृत कृति इन्होंने उनके सुपुत्र अर्थात् कविवरके पिता साह लालजी भी सं० १६८४ में तरयार की थी। बादको उसे ही संक्षिप्त करके अपने पिताके ममान सुयोग्य, सदाचारी, धर्मात्मा और संवत् १६८७ में चैत्रशुक्ला चतुर्थी चंद्रवार के दिन भरणी उदार मजन थे। नमें लघु सीतासतु नाम दिया गया। इस ग्रंथमें बारह- भगवतीमा वी शतान्टिके प्रतिभास मापाके मंदोदरी सीता प्रश्नोत्तरके रूप में रावण और मंदोदरी विद्वान कवि और आध्यात्मिक समयसारादि ग्रंथोंके बड़े की चित्त वृत्तिका परिचय देते हुए सीताके दृढ़तम सतीवका
ही रसिक थे। इनका अधिक समय तो अध्यात्म ग्रंथों के अच्छा चित्रण किया गया है। रचना मरल और हृदयग्राही
पठन-पाठन तथा गृहस्थोचित षट्कर्मोंके पालनमें व्यतीत है तथा पढ़ने में रुचिकर मालूम होती है।
होता था, और शेष समयका सव्यय विद्वद्गोष्ठी, तबदूसरी रचना अनेकार्थनाममाना है। यह एक पद्या- चर्चाए हिन्दीकी भावपर्या कविताओंरचने में होता था। मक कोष है, जिसमें एक शब्दके अनेक अर्थोको दोहा छंद श्राप प्राकृत, संस्कृत तथा हिन्दी भाषाके अभ्यासी होने में संग्रह किया गया है। यह कविवर बनारसीदामजीकी
साथ साथ उर्द, कारमी, बंगला, तथा गुजराती भाषाका नाममालाने १७ वर्ष बाद की रचना है, जो संवत् १६८७ में
भी अच्छा ज्ञान रखते थे, इतना ही नहीं किन्तु उर्दू और श्राषाढ कृष्णा नृतीया गुरुवारके दिन शाहजहाँके राज्यकाल गुजरातीमे अच्छी कविता भी करते थे । अापकी कविताएं में देहली-शाहदरामे पूर्ण की गई है। इन दोनों रचनाओं मरज और सबोध हैं और वे पदनेमें बहुत ही रुचिकर का संक्षिप्त परिचय अनेकान्त वर्ष ५ किरण १-२ में कराया मालम होती है। उनकी भाषा प्राम्जन और अर्थबोधक है जा चुका है।
और ये भाषासाहित्यकी प्रौढताको लिये हुए हैं। उनमें तीसरी रचना 'मृगांक लेखाचरित्र है। इसमें ग्रंथकार ने 'चंद्रलेखा और मागरचन्द्र के चरित्रका वर्णन करते हुए .
लोगोंके अनुरंजनकी शक्ति है और साथ ही प्रामकल्याण चद्रलेखाके शीलवतका महत्व स्थापित किया । चन्द्रलेखा * घना-मगदह सय मंवदनीद नदा, विक्कमराय मायए । अनेक विपत्तियोंको माहम तथा धैर्यके माथ महते हए अगदमिय पंचाम मामादिणे, रागाटियउ अचियपए।" अपने शीलवतसे विचलित नही ह. प्रत्युत उममें स्थिर दवाइ-चरिउ मयंकलेह चिरुणंदउ, जामगारवि-मसिहरो। रहकर उसने सीताके समान सतीत्वा अच्छा और अनुपम
मंगलमारुह वह जणि मेहणि, धम्म पसंग्गहिद कगे।२ आदर्श उपस्थित किया है।
गाया-हयो कोट हिमारे जिणहरि चार माणस । कवि भगवतीदासने इस ग्रंथ को हिमारनगरके भगवान तथाठी वयधारी जोईदामो वि बंभयारीयो ।। ३ वर्धमान (महावीर ) के मन्दिरमे विक्रम संवत १७०० में
भागवई महुरीया वनिगवरवित्ति माइणाविरिण । अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूर्ण किया है। उम विबुध सु गंगारामो तथठिया जिणहम महतो * नगर बदिए बसै भगोती, जनमभाम है श्रामि भगोती। दोहा-ससिलेवा सुयबंधुजे अहिउ कविण जो श्रामि । अग्रवाल कुल बंसल गोती, पडिनपद जन निरव भगोती। महर्ग भामउ देसकरि भाउ भगोतीदासि ॥ ५ -सीतासतु प्रश.
-मृगाकलेखाचरितप्रशस्ति ।