________________
२२०
अनेकान्त
वर्ष ७
deserve the attention even of those "येषां न विद्या न तपो न दानं who have Plats and Kant, I should ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। point to India".
ते मत्यलोके भुवि भाग्भूता अर्यात यदि मैं ऐसे देशको खोजू, जिसे प्रकृतिने
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति"। समस्त वैभव शक्ति तथा सौन्दर्य प्रदान किया है, जिसे
इममें सर्व प्रथम गुण विद्या ही मनुष्यस्व प्राप्तिका लक्षण पृथ्वीवर स्वर्गरूपमें निर्मित किया है, तो मैं भारतकी ओर बतलाया गया है। अन्य गुण सच्चा विद्या प्राप्त हानेपर इङ्गित करूंगा। यदि मुझस प्रश्न किया जावे कि किम व्योम स्वतः ही पाजाते हैं। विदुरजीन तो यहां तक कहा है कि मण्डल के नीचे मानव मस्तिष्कने अपनी शक्तियोंका विकाम कोऽर्थः पुत्रेण जातेन योन विद्वान धार्मिकः" । अत: समार किया है. जीवनकी महत्वपूर्ण समस्याओंर विवेचन कर में अपना अस्तित्व कायम रखने और प्राचीन गौरवकी रक्षा उनमेमे कितनों हीके ऐसे समाधान खोज निकाले हैं, जिनकी करनेके लिये वर्तमान दक्षित शिक्षा और शिक्षाप्रणाली दोनो और उनका भी ध्यान प्रारर्षित होगा, जिनके पाप 'लेटो को ही परिवर्तित करना होगा। शासकवर्गने अपनी स्वार्थतथा कांट हैं तो मैं भारतकी भोर इङ्गित करूँगा। साधनाके हेतु, प्राजकी शिक्षा और उसकी दूषित पढ़तिको
जिस भारतके सम्बन्ध में पाश्चान्य लोगों तक ऐपे उद्- प्रसारित कर हमें हमारे देश की और समाजको किस प्रकार गार निकलते हैं, श्राज उसका इस प्रकार अधःपतन देख अकर्मण्य, अपंग और अपने ही हाथकी कठपुतली बना ऐसा कौन पाषाण हृदय भारतीय होगा, जिसकी प्रांस्वासे डाला, विज्ञ पाठक इसकी अनुभूतिमे वचित न होंगे। प्रश्रधाराका अविरल वात न उमड़ पडता हो। इस सबका शिक्षामें दोप-प्राजकी शिक्षामे सदाचारके लिये एकमात्र कारण यही है कि उस समय शिक्षा प्राजकी तरह प्राय: कोई स्थान नही है, इसके विपरत कभी २ तो हम पैसोस वाजारु भाव क्रय-विक्रय नहीं की जाती थी । गुरु उन शिक्षकोको जिनके हाथों में राष्ट्र निर्माता बाज कोंका अपने ही श्राश्रमों में ब्रह्मचारियोको रखकर उनकी पात्रता भावी भविष्य अवलम्बित है, विद्यार्थियोंकी कुरिमत प्रवऔर योग्यताके अनुसार ही स्वावलम्बी शिक्षा देते थे। त्तियोंको प्रोत्साहित करते देखते हैं।
"Knowledge without character is वर्तमान शिक्षा प्रणालीने देशक नवयुवको, हिन्दुस्तान sin" अर्थात बिना सदाचारके विद्या पाप है, और की भाषाओं और देशकी सर्वमान्य संस्कृतिको जो अपार हानि "श्राचारहीनान् पुनन्ति वेदाः” इन्ही बातोको शिक्षाका पहचाई है वह लिखनेका नहीं, अनुभव करनेका विषय है। आधारभूत समझा जाता था। उस समय मैडागास्कर और ग्राम जिम शिक्षा-पद्धतिका दौर-दौरा है उसमें पूर्ण शक्ति गोबीका रेगिस्तान, क्लाइवकी कस्टनीनि और ना दरशाह किताबी पढ़ाई में ही व्यय कर दी जाती है और उसके द्वारा के हमले आदि बातोंको कटुताके साथ रटाकर पास करा देने केवल दूसरोंके अनुभवों, दूसरों की कल्पनाओं और दूसरोंके को प्रथा प्रचलित नही थी। हां गुरु मदा मय बोलो, तर्कों को ही रटानेकी रीति प्रचलित है। इसमें मानव-जीवन कभी क्रोध मत करो, किमी जीवको मन सतायो, मधुर और उसकी परिस्थितियोंका कोई स्थान ही नहीं रक्ख। भाषण करो, परनिन्दासे बची, सयमी बनो श्रादि वाक्य जाना । इने गिने वैज्ञानिकोंने भले ही कुछ अद्भुत प्राविपट्टियॉपर लिख देते थे। उन्हींको हृदयगम कर जीवनमें कार किये हों लेकिन सर्व-साधारणकी शिक्षाका प्राधार तो श्राचरण करना यही परीक्षाकी कमौटी थी। गुरुओकी दिन- थोधी किताबोंका बोझा ही रहा है। जिस अवस्थामे बालकों चा, व्यवहार और नीति शिक्षाके उच्चतम आदर्श थे। की सर्वशक्तियोंका विकास होता है और सदाचारकी नीव
यदि प्राज वास्तवमे ही हमें अपनी दशाप दुख है, डाली जाती है उसी अवस्थामें परावलम्बी और पराश्रित यदि हम सुख और शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शिक्षा प्राप्त करनेसे ममूचे राष्ट्रकी कितनी बड़ी हानि हो रही उसी शिक्षण-पद्धतिको अपनाना होगा। नातिमें बतलाया है, इसका कोई विचार ही नहीं करता । भारतमें आयुका
औसत जहां २३ वर्ष है वहां स्त्री अथवा पुरुषको अपने