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किरण ११-१२]
हमारी शिक्षा-ममम्या
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जीवनके२०, २५ वर्ष इस शिक्षा-पद्धतिके कारण इस करुणाका भडार होती हैं, और उनका प्रभाव भी बालकों प्रकार निरुहेश बिताने पड़ते हैं, फिर उनमें दीर्घमूत्रता, पर चिरस्थायी होता है। माताओं के प्रभावमें यदि यह काम संशयवृत्ति, अनिश्चितता और अपने पाप किमी निर्णय पर पुरुषों को ही दिया जाय, तो सबसे योग्य अनुभवी और पहुंचने की अक्षमता पाना स्वाभा वक ही है। इतना ही नहीं सदाचारप्रिय शिक्षकको ही देना चाहिये । छोटे बच्चोंके परिमाणत: जीवनक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर अधिकांश लोग शिक्षा देनेके महत्वपूर्ण व गृढ विषयपर उसकी महत्ताक व्यावहारिक ज्ञानस सर्वथा शुन्य पाये जाते हैं।
अनुकृत्त ही ध्यान देना चाहिये। नन्हे शिशुओं की अवस्था विद्यार्थियोको पात्रता, अपात्रता तथा किसी विषय- एक कोमल उगते हुए पादेके समान है, जिसकी भती. विशेषके लिये अभिरुचि, अनभिरुचि, योग्यता अयोग्यता भाति रक्षा न करनेपर वह दूपित वातावरणाम प्रभावित का विचार किये बिना ही श्रेणीबद्ध रूपमें पढ़ाया जाता है, हाकर भलीभाति फलफूल नही पाता। बालकाको शिक्षाका जो कि देश तथा समाजकं लिये महान् घातक है। प्रारम्भ ही चारित्रिक और धामिक शिक्षा द्वारा करना
उन नवजाति बालकोकी प्राथमिक शिक्षाका जो राष्टकी चाहिये। क्योंकि भावी समाजकी विशाल हमारत हली भावी श्राशाएँ हैं, और जिनके गुलाबी चहरीपर भावुकता, नीवपर रवी जा सकेगी। बालिकाओकी शिक्षापर हमें कर्मण्यता और उरचाकाक्षाओंकी रेखाय सदैव अटवलिया विशेष ध्यान देना चाहिये । उन्हें बाल्यकाल में ही धार्मिक, किया करती हैं, जो कि गष्ट व समाजके सच्चे निर्णायक गास्थिक और समाजोपयोगी शिक्षा देकर इस योग्य बना तथा भावी शिक्षक व पिता हैं, उचित ध्यान नहीं रखते हैं। देना चाहिये, कि भविष्य में हमारी सन्ताने बिना विशेष बाल-शिक्षाका कार्य अयोग्य शिक्षकोक हाथमें देकर हम उन प्रयासक ही सुसंस्कारी और धार्मिक उत्पन्न होसके। बालकोंके जीवनोको ही नहीं बिगाइते, किन्तु भविश्यमें हमें शिक्षणपद्धनिमें मातृभाषाको प्रधानता देनी अकर्मण्यता, कुसंस्कारिता और अयोग्यताको जन्म देकर चाहिये । अन्तरप्रान्तीय-विचारविनिमय और संगठनके उनका अविरोध स्वागत करते हैं।।
लिये अपने देशकी एक भाषा बनाना चाहिये और वह यह है आज हमारी सरकारी शालाश्री और महा वद्या-हिन्दी ग्रामों की अधिकांश जनसख्य का ध्यान रग्बकर लयोकी शिक्षाका हाल । फिर हमारी मामा जक और शिक्षामें शहरकी अपेक्षा ग्रामीण संस्कृतिकी प्रधानता रखनी धामिक विद्यापीठों, श्राश्रमों, कन्याशालाओं, विधवाश्रमोकी चाहिये तथा उनकी श्रावश्यकनाश्री और दरिदताओंको शिक्षा, पारस्परिक व्यवहार, गरु-शिष्य-भकि, एकांगीपन, देखते हुए स्वावलम्बनी ही शिक्षा देनी चाहिये। शिक्षाका शिक्षण विभिन्नना, कार्यकताकी स्वार्थ-नीति श्रादि बानी माध्यम अग्रेजी नही सम्बना चाहिये और जो विद्यार्थी विना का स्पष्ट प्रदर्शन करनेमे अनुभूतिप्राप्त हृदय मकुचाता है, अंग्रेजी लिये अपनी शिक्षा पूरी करना चाहें, उनपर अग्रेजी लेखनी रुक जाती है। श्राज इनमे क्या होरहा है । लघय का भार नही लादना चाहिये। वर्धा-शिक्षा प्रणालीके अनु. और लक्ष्यपूर्तिमें कितना अन्तर है !! इमपर धार्मिक और सार हम शिक्षाशालाओम प्रौद्योगिक शिक्षणको अवश्य सामाजिक शालाओंके शिक्षादाता महानुभाव एकाग्रचित्त स्थान देना चाहिये । पर उसमें विद्याथियोंकी रुचियोका हो शांतिसे विचारें। साथ होताअपने परम पवित्र पद और अवश्य ध्यान रखना चाहिये । इतिहास, अर्थशास्त्र और महान उत्तरदायित्वका स्मरण कर, पश्चात्तापक श्रासुप्रसि समाजशास्त्र आदि मास्कृतिक विपय भारत के इतिहाससिबू अपनी भूलोको धोने का प्रयत्न करे । उन्हें निजत्वक भान सर्वोच्च श्रादर्शकी ही दृष्टि से सिखाये जाने चाहिये। जिसमे और पदमहानता गौरवमे सत्यपथकी झलक स्वय ही जिन वीगेन मनुष्यको पशुताकी श्रीरम मानवताकी और दृष्टिगोचर होने लगेगी।
लानेकी कोशिश की है, इनकी शांतिमय विजय कहानियों सुधारयोजनाएँ-बालशिक्षाका कार्य जहां तक बन का ही पाठ्यक्रम में प्रधान म्धान हो मानवजातिक इतिसके पुरुषांकी अपेक्षा माताओं को देना चाहिये । क्योंकि वे हाससे उदाहरण लेकर यह बार बार दिखाना चाहिये कि प्रेमकी प्रतिमा, दयाकी मूर्ति, सहिदगुताकी देवी और कपट, हिंसा, झूट, अन्याय, कुशील प्रादिसे सत्य, अहिंसा,