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अनेकान्त
[वर्ष ७
निष्कपटता, न्याय, शील, संयम, तप, त्याग श्रादि गुणों में शिक्षकोंसे निवेदन--श्राप ही विश्वके सच्चे पथही अधिक शक्ति है। इससे उनका जीवन धार्मिक और प्रदर्शक और अगुश्रा हैं । "प्राचार्यः परमः पिता" तथा पवित्र बन सकेगा । धार्मिक ग्रन्थोंके प्रात:स्मरण तथा "यथा गुरुस्तथा शिष्यः" इन सिद्धान्नोंके आधारपर किसी धार्मिक कथाओं द्वारा भी उनकी रुचि जागत करते रहना भी रष्ट अथवा समाजका भावी भविष्य अापके चरित्र और चाहिये।
आदर्शपर अवलम्बित है। आपको अपने ही निजी श्रादर्श विचार कितने ही क्यों न जगे. जब तक वे क्रियात्मक से शिक्षा और सदाचारकी विशाल इमारत खड़ी करनी होकर फजप्रद नही होते. उनका कोई मूल्य नहीं माना होगी। जो अकर्मण्य हैं, प्रमादी हैं जिनसे संसारमें कोई जाता। यही बात भावनाओं और अनुभूतिको शिक्षाके काम करते धरते नही बनता, वे ही लोग शिक्षकके श्रापन सम्बन्धमे कही जा सकती है। श्रार आवश्यकता इस बात पर प्रामीन हो जाते हैं, हम भ्रान्तिभूलक लोकविश्रुत, की है कि देशके नवयुवक सचरित्र और कर्मठ बन। जनश्रुतिको भापको अपने अनवरत अध्यवसाय, अटूट लगन शिक्षाक द्वारा उनके चरित्रका ऐसा निर्माण किया जाय कि और अम्बंड कार्यसाधना द्वारा मिटाना होगा । "सर्वेषामेव म्यवहारिक कार्य करनेकी और कुछ सेवा करनेकी शकि. दानानां विद्यादानं विशिष्यते” ! आपको अपने पूर्वोपार्जित पैदा हो। श्राज एमे नागरिकोंकी आवश्यकता है जो परि- शुभ कर्मोदयसे यही सर्वश्रेष्ट विद्यादान देनेका सौभाग्य स्थिति और संयोगोंके कारण किसी भी क्षेत्रमे या न पडे प्राप्त होगया है। श्राप विश्वास रखें-"गुणा' पूजा-स्थानं हों वहां भी कुछ न कुछ उत्तम रचना करके जगन में ही गुणपु लिंगं न च वयः" । यदि आज नही तो कल श्राप मंगल कर सकें। शिक्षा या अध्ययनके प्रत्येक विषयका के गुणोंके लिये श्रापकी और आपके श्रादर्शकी पूजा अवध्येय सदाचार ही होना चा िये । शिक्षको सब विषयोंकी श्य होगी। आपकी इस महती मेवा, सचे त्याग और श्रेष्ठ शिक्षा ऐसी पद्धतिसे देनी चाहिये, जिससे विद्यार्थीके चरित्र दान का मूल्य मुद्राओके द्वारा चुकाया नही जा सकगा। का विकास हो. क्योंकि व्यक्ति या राष्ट्र दोनों के लिये चरित्र यह प्रापकी दानरूपी शुभ कृत्योको धरोहर भविष्यमे स्वत: ही एकमात्र जीवनका निश्चित प्रापर है।
ही प्राप्त होगी। आपको इस महती सेवाके बदले जितना शिक्षाका श्रादर्श केवल धनप्राप्ति या प्रतिष्टाप्राप्ति न हो भी कम पारिश्रमिक मिलेगा, आप अपने द्वारा उतनी ही देशमाजसेवाही उनका भाव रहे।सायी पवित्रता अधिक देश को आर्थिक महायता पहुंचा सकेंगे, साथ ही लोकसेवा. सर्वधर्म-समभाव और उरचचरित्रकी उसमें प्रकृति कोषमे भविष्यके लिये मंचय भी होगा। मानवीय प्रधानता हो । सभी धर्मोक समान और प्रादर्श तत्व अश होने के नाते जब कभी श्राप लोगोंको लोभादि श्रावप्रत्येक बाजकको सिखाये जाने चाहिये। ये तत्व पुस्तको रण वेग्ने लगे, दरिद्रता सताने लगे, अथवा किसी अन्य अथवा शब्दो द्वारा नहीं मिखलाये जा सकेगे । इन तचों को परीपद द्वारा श्रापकी परीक्षाका सुअवसर उपस्थित होजावे बालक गुरुके दैनिक जीवन-द्वारा ही सीख सकेगे । यदि तो श्राप अपने ही उस परम पवित्र और महान पदका शिक्षक न्याय, तप, सत्य, परोपकार, दया और त्यागके ध्यान कीजियेगा, जिसपर प्राप्तीन हैं। “Where there
आध रपर जीवनयापन करें तो यह प्रासानीसे सीख सकेंगे is will there is way, where there is कि ये तत्व सभी धर्मोक श्राधार हैं।
sorrow there is holy ground, someday सुविधानुकूल एक एक प्रान्त अथवा जिलेमे प्रतिवर्ष iman will understand it". अर्थात् जहां इच्छ। कमसे कम दो माहका शिक्षण शिविर खोलना चाहिये। है वहां अवश्य रास्ता मिलता है । जहां दुःख है वहीं उसमें देश अथवा समाजके लिये सर्वस्व अर्पण कर देने पवित्र भूमि है, मनुष्य एक दिन इस समझेगा । इस वाले महापुरुषोंके पूर्वनिश्चित विषयोपर भाषण कराने सिद्धान्तपर अटल विश्वास रखियेगा। कहा हैचाहिये, जिससे शिक्षक लोग अनुभव व ज्ञान संपादन कर धनहीनो न हीनश्च, धनिकः स सुनिश्चयः । सके तथा उनके जीवनोंसे स्फूर्ति ले सके।
विद्यारत्नेन हीनश्च स हीनः सर्ववस्तुपु ।"