________________
अनेकान्त
[वर्ष ७
किया गया है ग्रंथके शुरूमें मंगल और प्रतिज्ञा-वाक्य ग्रन्थको विक्रम संवत् ११२३में कर्णनरेन्द्रके के अनंतर ग्रंथकारने जो कुछ वर्णन किया है उसमें राज्यकालमें वालपुर या श्रीबालपुर में पूर्ण किया था । देह-भोगोंकी असारताको व्यक्त करते हुए ऐंद्रिक सुख यह कर्णदेव वही सोलंकी कर्णदेव मालूम होते को सुखाभाम बतलाया है । साथ ही धन यौवन और हैं जो राजा भीमदेवके पुत्र थे और जिनका राज्यशारीरिक सौंदर्य वगैरहको अनित्य एवं अस्थिर ममम काल प्रबन्ध चिन्तामणिके कर्ता मेरुतुंगके अनुसार कर मनको विषय-वासनाके आकर्षणसे हटाने का सुंदर सं० ११२० से ११५० तक २६ वर्ष आठ महीना और एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है, और जिन्होंने उसे इक्कीस दिन माना जाता है। संभव है इन दो ग्रन्थों जीतकर अात्मसाधनाकी है अथवा रत्नत्रयादिको प्राप्त के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थोंकी रचना भी इन्होंने की हो किया है उनकी कथावस्तु ही प्रस्तुत ग्रंथका विषय है। और उनमें अपना विशेष परिचय भी दिया हो।
अणहिलपुरमें प्रसिद्ध सज्जनोंमें उत्तम 'सज्जन' तीसरे श्रीचन्द्र वे हैं जो ब्रह्म-श्रुतसागरके शिष्य मामका एक श्रावक था जो प्राग्वाट वंशमे उत्पन्न हुआ थे। श्रुतसागरका समय विक्रमकी सोलह वीं शताब्दी था, धर्मात्मा मूलराज नृपेन्द्रकी गोष्ठीमें बैठने वाला निश्चित है। अतः यही समय इन श्रीचंद्रका समझना था। और अपने समयमें धर्मका एक आधारभूत था। चाहिये । इन्होंने 'वैराग्यमणिमाला' नामकी एक उसके 'कृष्ण' नामका पुत्र हुआ, जो गुणरूपी रत्नोंका सप्तति पद्यात्मक रचनाकी है, जो मुमुक्षु जीवोंके लिये समुद्र था और धमे-कर्ममें निरत जनों में शिरोमणि अच्छी उपयोगी है, भाषा सरल है और पढने में प्रिय तथा दानादि द्वारा चार प्रकारके संघका संपोषक था। मालूम होती है। आपकी यह कृति माणिकचंद ग्रंथइसकी 'राणू' नामकी साध्वी पत्नी थी, जिससे तीन मालामें 'तत्त्वानुशासनादि संग्रह' के अन्तर्गत प्रकापुत्र और चार पुत्रियां हुई थीं। इसी महा श्रावक प्रकाशित भी हो चुकी है। कृष्णकी प्रेरणाको पाकर कविवर श्रीचन्द्रने कथाकोश
वीरसेवामन्दिर. सरसावा की रचना की है।
सम्मत्तस्स य सोहा णिदिवा पंचवीसमलरदिया। दूसरा ग्रंथ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' है, जो वास्तव छड्डायदण-तिमूढा अट्ठमया तहय संकाई॥ में स्वामीसमन्तभद्रकी सुप्रसिद्ध 'रत्नकरण्ड' नामकी पत्र ५६ पर निम्न पंद्य उक्तं च रूपसे दिया है :गंभीर कृतिका विस्तृत व्याख्यान मात्र है । कविने इस छसु हेटिमासु पुढविसु जोइस-वण-भवण-सव्व इत्थीसु ।
आचार-ग्रंथकी रचना करते हुए उसे २१ सन्धियोंमें बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठी एवज्जेई ॥ १ ॥ विभाजित किया है जिसकी आनुमानिक श्लोक संख्या यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहमे पाई जाती है और विक्रमकी चारहजार चारसौ अट्ठाईस बतलाई गई है। ग्रंथमें तेरहवी शताब्दीके विद्वान पं. श्राशाधरजीने अपनी श्रनउदाहरण रूपसे प्रस्तुत व्यक्तियों के कथानकोंका भी गार धर्मामृतकी टीकामे इसे उद्धत किया है। उल्लेख किया गया है। साथ ही विषयको स्पष्ट करनेके *एबारह नेवासा समया विकमस्स महीवइयो। लिये कुछ प्राचीन पद्योंको भी जहाँतहां उद्धृत किया है। जइया गया हु तहया समाणिए सुंदरं एयं ॥
ग्रंथमें हरिनन्दि,मुनीन्द्र, समंतभद्र, अकलंक, कुल- कण्या गरिदहो रजसु सिरि वालपुरम्मि बुद्ध सिरियंदे । भूषण,पाद पूज्य (पूज्यपाद) विद्यानंदि,अनन्तवीय, वर- +अथ सं० ११२० चैत्रवदि ७ सोमे हस्तनक्षत्रे, रत्नकरण्डसण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहगसेन, गुणभद्र, श्रावकाचार प्रशस्ति मीनलग्ने श्री कर्णदेवस्य राज्याभिषेक: सोमराज, चतुमुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीहर्ष और संजातः । प्रब चि०३-८२ कालिदास नामके विद्वानोंका उल्लेख किया गया है। सं० ११२० चैत्रसुदि ७ प्रारभ्य सं० ११५० पौष वदि २ ४१. वे पत्रकी द्वितीय संधिमें सम्यग्दर्शनकी पिशुद्धताका यावत् वर्ष २६ मास ८ दिन २१ अनेन राज्ञा राज्यं कथन करते हुए निम्नगाथा 'उक्तं च' रूपसे दी है :- कृतम् ।। प्रब० चि०।