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श्रीचन्द्रनामके तीन विद्वान
( ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
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श्रीचन्द्र नामके तीन दिगम्बर विद्वानोंका पता चलता है, जो विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक हुए हैं। इनमें प्रथम श्रीचन्द्र बलात्कार गणके आचार्य श्रीनन्दिके शिष्य थे जो लाड वागड़ संघ में हुए हैं । इन्होंने सागरसेन मैद्धान्तिक से महापुराणके विषम-पदोंका विवरण जानकर और मूलटिप्पणका अवलोकन कर उत्तरपुराणकी रचना वि० सं० २०८० में की है । इनकी दूसरी कृति पुराणमार है जिसका रचनाकाल संभवतः वि० सं० १०८० या १०८५ के आस-पासका अनुमान किया जाता है, क्यों कि समय-निर्देशक पुष्पिकामें लेखकोंकी कृपासे पाठ में कुछ अशुद्धि पाई जाती है। इनकी तीसरी कृति रवि पेणाचार्य पद्मचरितका टिप्पण है जिसे इन्होंने पं० प्रवचनसेनसे उक्तचरितको सुनकर वि० सं० १०८७ में बनाया था। इस टिप्पणी प्रतियां कितने ही ग्रंथभंडारों में पाई जाती हैं।
विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के विद्वान पंडित आशाधरजीने भगवती श्राराधनाकी 'मूलाराधना 'दर्पण' नामक टीका में ५८६ नं० की गाथाकी टीका करते हुए, श्रीचन्द्र टिप्पणका उल्लेख किया है यथा - "कूरं भक्त, श्रीचन्द्र - टिप्पण के त्वेवमुक्तं
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कथार्थप्रतिपत्तिर्यथा चन्द्रनामा सूपकारः इत्यादि" । इससे स्पष्ट है कि पं० श्रशाधरजी के समय में भगवती आराधनापर श्रीचन्द्रका कोई टिप्पण मौजूद था, जिसके कर्ता संभवतः उक्त श्रीचन्द्र ही जान पड़ते हैं । और यह भी हो सकता है कि उनसे भिन्न कोई दूसरे ही श्रीचन्द्र उसके कर्ता हों । परन्तु अधिक संभावना इन दोनोंके एकत्वकी ही मालूम होती है । #इन ग्रंथोंके परिचय के लिये देखो, पं० नाथूरामजीका जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ३३५-६
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दूसरे श्रीचन्द्र विक्रमी १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं । यह अपभ्रंशभाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे, साथ ही संसार देह-भोगोंसे विरक्त थे इन्होंने ग्रन्थ में अपनेको 'मुनि' 'पंडित' और 'कवि' विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इनकी अभी तक दो कृतियों का पता चला है, उन दोनों ग्रंथों में इन्होंने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, उससे दोनों प्रन्थों के कर्ता एक ही जान पड़ते हैं। यह कुन्दकुन्दान्वय देशीगरणके आचार्य सहस्रकीर्तिके प्रशिष्य थे। और सहस्रकीतिके पांच शिष्यों में से यह वीरचन्द्र के प्रथम शिष्य थे* । सहस्रकीर्तिके गुरुका नाम श्रुतकीर्ति था और श्रुतकीर्ति श्रीकीर्तिके शिष्य थे। ऊपर जिन दो कृतियों का उल्लेख किया गया है उनके नाम 'कथाकोश और रत्नकरण्ड श्रावकाचार' हैं ।
कथाकोशमें विविध व्रतोंके अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालोंकी कथाओंका रोचक ढंग से संकलन *महस्रकीर्तिके पाचों शिष्योका उल्लेख कथा कोश की संस्कृत प्रशस्ति में नहीं है, किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रशस्ति मे निम्न रूप से पाया जाता है लेकिन उसमें लेखकोके द्वारा कुछ शुद्धि रह गई है, जिससे उनके शिष्योंके सभी नाम ठीक नही मालूम होते :सिरि चंदुजल जम संजायत । यामे सहसकित्ति विक्वायड । घत्ता-तहो देव इंदि गुरु सीसु हुउ, बीउ हो वा मिणि मुणि वीरें हुउ उदयकित्ती वि तह, सुहइंदु वि पंचम भणिश्रो ( ? ) । जो वरण कमल श्रायम पुराणु, गाउत्तई बहु साइम समाणु । श्राइरिय महागुण गण समिद्धु, वच्छल्ल महो वह जय पसिद्धु । तो वीरहंदु मुणिपंचमासु, दूरुज्भिय दुम्मइ गुण णि वासु । स उ जण मद्दामाणिक्करवाणि वय मीला लंकिउ दिव्ववाणि । सिरिचदु ग्राम सोइण मुखीसु, मंजायउ पंडिय पढम सीसु । तेणे उ प्रणेय उद्धरिय धामु, दंसण कद रयणकरंड गामु । - प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रा०